Go To Mantra

प॒त्तो ज॑गार प्र॒त्यञ्च॑मत्ति शी॒र्ष्णा शिर॒: प्रति॑ दधौ॒ वरू॑थम् । आसी॑न ऊ॒र्ध्वामु॒पसि॑ क्षिणाति॒ न्य॑ङ्ङुत्ता॒नामन्वे॑ति॒ भूमि॑म् ॥

English Transliteration

patto jagāra pratyañcam atti śīrṣṇā śiraḥ prati dadhau varūtham | āsīna ūrdhvām upasi kṣiṇāti nyaṅṅ uttānām anv eti bhūmim ||

Pad Path

प॒त्तः । ज॒गा॒र॒ । प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒त्ति॒ । शी॒र्ष्णा । शिरः॑ । प्रति॑ । द॒धौ॒ । वरू॑थम् । आसी॑नः । ऊ॒र्ध्वाम् । उ॒पसि॑ । क्षि॒णा॒ति॒ । न्य॒ङ् । उ॒त्ता॒नाम् । अनु॑ । ए॒ति॒ । भूमि॑म् ॥ १०.२७.१३

Rigveda » Mandal:10» Sukta:27» Mantra:13 | Ashtak:7» Adhyay:7» Varga:17» Mantra:3 | Mandal:10» Anuvak:2» Mantra:13


Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (पत्तः) पादमात्र अर्थात वैश्वानर जागृतस्थान प्रथम पाद, तैजस स्वप्नस्थान दूसरा पाद, प्राज्ञ सुषुप्तिस्थान तीसरा पाद, नेतिनेति एकात्मस्वरूप शिव अद्वैत चतुर्थ पादरूप से (जगार) उपासकों द्वारा अपने अन्दर प्राप्त किया जाता है। वह परमात्मा (प्रत्यञ्चम्-अत्ति) प्रकट हुए जगत् को अपने अन्दर विलीन करता है (शीर्ष्णा शिरः) आत्मा से शिरोभूत अव्यक्त प्रकृति (वरूथं प्रतिदधौ) वरणीय अपने व्याप्त को फिर धारण करता है (ऊर्ध्वाम्-आसीनः) उत्कृष्ट मोक्ष को व्याप्त हुआ (उपसि) उपस्थान में धारण करता हुआ (क्षिणाति) जगद्रूप में परिणत करता है (उत्तानां भूमिं न्यङ्-अनु एति) ऊँची भूमि ऊँची स्थितिवाली सूक्ष्म कारण प्रकृति को नीचे जगद्रूप में प्रेरित करता है ॥१३॥
Connotation: - उपासक जन परमात्मा को जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय स्थानवाले स्वरूप से अनुभव करते हैं। वह परमात्मा उत्पन्न जगत् को विलीन कर प्रकृतिरूप में कर देता है, पुनः उस व्याप्त प्रकृति को अपने आश्रय जगद्रूप में परिणत कर देता है ॥१३॥
Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (पत्तः) पादमात्रतः “वैश्वानरः प्रथमः पादस्तैजसो द्वितीयः पादः प्राज्ञः तृतीयपादः नान्तःप्रज्ञं…… एकात्मप्रत्ययसारं……अद्वैतं चतुर्थपादं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः” [माण्डूक्योपनिषदि] (जगार) उपासकैगृर्ह्यते “कर्मणि  कर्तृप्रत्ययश्छान्दसः” (प्रत्यञ्चम्-अत्ति) प्रत्यक्तं प्रकटीकृतं जगत् पुनर्विलीनं करोति “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त] (शीर्ष्णा शिरः) आत्मना “शीर्ष्णा आत्मना” [जै० २।४६] शिरोभूतमव्यक्तं प्रकृत्यात्मकम् (वरूथं प्रतिदधौ) वरणीयं स्वव्याप्यं पुनर्धारयति (ऊर्ध्वाम् आसीनः) ऊर्ध्वभूमिं मोक्षभूमिं व्याप्तः सन्नपि (उपसि) उपस्थाने “उपसि उपस्थे उपस्थाने” धारयन् (क्षिणाति) जगद्रूपे परिणमति (उत्तानां भूमिं न्यङ् अन्वेति) उच्चभूमिं-उच्चस्थितिं कारणरूपां नीचैरनुगमयति जगद्रूपे प्रेरयति ॥१३॥