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पिबा॑पि॒बेदि॑न्द्र शूर॒ सोमं॒ मा रि॑षण्यो वसवान॒ वसु॒: सन् । उ॒त त्रा॑यस्व गृण॒तो म॒घोनो॑ म॒हश्च॑ रा॒यो रे॒वत॑स्कृधी नः ॥

English Transliteration

pibā-pibed indra śūra somam mā riṣaṇyo vasavāna vasuḥ san | uta trāyasva gṛṇato maghono mahaś ca rāyo revatas kṛdhī naḥ ||

Pad Path

पिब॑ऽपिब । इत् । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । सोम॑म् । मा । रि॒ष॒ण्यः॒ । व॒स॒वा॒न॒ । वसुः॑ । सन् । उ॒त । त्रा॒य॒स्व॒ । गृ॒ण॒तः । म॒घोनः॑ । म॒हः । च॒ । रा॒यः । रे॒वतः॑ । कृ॒धि॒ । नः॒ ॥ १०.२२.१५

Rigveda » Mandal:10» Sukta:22» Mantra:15 | Ashtak:7» Adhyay:7» Varga:8» Mantra:5 | Mandal:10» Anuvak:2» Mantra:15


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (शूर वसवान-इन्द्र) हे पराक्रमी अपने गुणों से आच्छादित करनेवाले परमात्मन् या राजन् ! (वसुः-सन्) तू मोक्ष में बसानेवाला होता हुआ या राष्ट्र में बसानेवाला होता हुआ (मा रिषण्यः) हमें हिंसित न कर (सोमं पिब पिब) अध्यात्मयज्ञ में उपासनारस का पुनः-पुनः पान कर या राजसूययज्ञ में हमारे दिये सोमरस को पी तथा राष्ट्रभूमि में सम्यगुत्पन्न अन्नभाग को पुनः-पुनः स्वीकार कर (उत) तथा (नः-गृणतः-मघोनः-त्रायस्व) हमें स्तुति करनेवालों को कृषि करनेवालों को (च) और (महः-रायः-रेवतः कृधि) महान् मोक्ष ऐश्वर्ययुक्त कर या महत् अन्नादि धन से धनी कर ॥१५॥
Connotation: - अपने गुणों से आच्छादित करनेवाला परमात्मा तथा राजा उपासकों तथा प्रजाओं को बसानेवाला होता है। उपासकों के उपासना-रस को स्वीकार करता है तथा राजा राजसूययज्ञ में प्रजा द्वारा दिये सोमरस तथा भूमि में उत्पन्न अन्नादि भार को स्वीकार करता है। परमात्मा की स्तुति करनेवाले उपासकों की परमात्मा रक्षा करता है और उन्हें मोक्ष प्रदान करता है। राजा भी श्रेष्ठाचारी जनों की रक्षा करता है और उन्हें सम्पन्न बनाता है ॥१५॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (शूर वसवान इन्द्र) हे पराक्रमिन् वसमान ! स्वानन्दगुणैरस्मानाच्छादयन् परमात्मन् ! राजन् वा। “वस आच्छादने” [अदादिः] “अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुङ् न शानचि व्यत्ययेन मकारस्य वकारः” [ऋ० १।९०।२। दयानन्दः] त्वम् (वसुः सन्) मोक्षे वासयिता राष्ट्रे वासयिता सन् (मा रिषण्यः) नास्मान् हिंसीः (सोमं पिब पिब) अध्यात्मयज्ञे-उपासनारसं पिब, राष्ट्रभूमौ समुत्पन्नमन्नभागं पुनः पुनः स्वीकुरु (उत) अपि च (नः गृणतः-मघोनः-त्रायस्व) अस्मान् स्तुवतोऽध्यात्मयज्ञवतः, यद्वा प्रशंसतः, श्रेष्ठकर्मवतः, कृषियज्ञवतः “यज्ञेन मघवान्” [तै० ४।४।८।१] (च) तथा (महः-रायः-रेवतः-कृधि) महता राया-महता मोक्षैश्वर्येण मोक्षैश्वर्ययुक्तान् कुरु यद्वा महताऽन्नादिधनेन धनिनः कुरु। ‘महः रायः’ उभयत्र तृतीयास्थाने षष्ठी व्यत्ययेन ॥१५॥