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समि॑द्धो अ॒द्य मनु॑षो दुरो॒णे दे॒वो दे॒वान्य॑जसि जातवेदः । आ च॒ वह॑ मित्रमहश्चिकि॒त्वान्त्वं दू॒तः क॒विर॑सि॒ प्रचे॑ताः ॥

English Transliteration

samiddho adya manuṣo duroṇe devo devān yajasi jātavedaḥ | ā ca vaha mitramahaś cikitvān tvaṁ dūtaḥ kavir asi pracetāḥ ||

Pad Path

सम्ऽइ॑द्धः । अ॒द्य । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । दे॒वः । दे॒वान् । य॒ज॒सि॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । आ । च॒ । वह॑ । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । चि॒कि॒त्वान् । त्वम् । दू॒तः । क॒विः । अ॒सि॒ । प्रऽचे॑ताः ॥ १०.११०.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:110» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:6» Varga:8» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:9» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

इस सूक्त में होमयज्ञ में कलाभवन में अग्नि का उपयोग और लाभ वर्णित हैं तथा अध्यात्मयज्ञ का अभीष्ट देव परमात्मा संसार में सिद्धि मोक्षप्राप्ति का निमित्त है।

Word-Meaning: - (जातवेदः) जात-उत्पन्न हुआ ही साक्षात्भूत विद्यमान अग्नि या परमात्मन् ! तू (अद्य) अब (मनुषः) गृहस्थ मनुष्यों के या मननशील उपासक के (दुरोणे) घर में या हृदय में (देवः समिद्धः) दिव्यगुण सम्यक् दीप्त हुआ या साक्षात् हुआ (देवान् यजसि) वायु आदि देवों को हव्य देकर दिव्यगुणवाले करता है या अपना ज्ञान देकर ज्ञानवाले बनाता है (त्वम्) तू (कविः) क्रान्तदर्शी-दूर पदार्थ को दिखाता है या देखता है जानता है और जनाता है (प्रचेताः) मनुष्यों को चेताता है (च) और (त्वं मित्रमहः) तू यज्ञ करनेवालों ऋत्विजों के द्वारा महनीय प्रशंसनीय या स्तुति करनेवालों के द्वारा स्तुतियोग्य (चिकित्वान् दूतः) चेतनों का या सावधान जनों को प्रेरणाप्रद है (आ वह) भलीभाँति प्राप्त हो ॥१॥
Connotation: - अग्नि उत्पन्न होते ही जाना जाता है, उसके प्रकाश से सब पदार्थ जाने जाते हैं, गृहस्थजन के घर में यजन कराता है, ऋत्विजों द्वारा उपयुक्त होता है, जीवों को प्रगति देता है एवं परमात्मा-सब उत्पन्न करता है, सब में विद्यमान मननशील जन के हृदय में साक्षात् होता है, स्तुति करनेवालों के द्वारा स्तुतियोग्य प्रेरणाप्रद है ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अस्मिन् सूक्ते होमयज्ञे कलाभवनेऽग्नेरुपयोगा लाभाश्च वर्ण्यन्ते तथाग्निनामत उच्यतेऽध्यात्मयज्ञस्याभीष्टो देवः स संसारसिद्धये मोक्षप्रापणाय च जनैराश्रयणीयः।

Word-Meaning: - (जातवेदः) जात एव साक्षाद्भूत एव विद्यमान जात एव वेदयसि ज्ञापयसि पदार्थान् तथाभूत त्वं हे अग्ने ! परमात्मन् वा (अद्य) सम्प्रति (मनुषः दुरोणे) गृहस्थस्य गृहे मननशीलस्य हृद्गृहे “दुरोणं गृहनाम” [निघ० ३।४] (देवः समिद्धः) दिव्यगुणः सम्यग्दीप्तः सन् साक्षाद्भूतः सन् वा (देवान् यजसि) वायुप्रभृतीन् यजसि हव्यं प्रदाय दिव्यगुणान्-करोषि स्वज्ञानं दत्त्वा ज्ञानवतः करोषि (त्वं कविः) त्वं क्रान्तदर्शी क्रान्तं दूरगतं पदार्थं दर्शयसि स्वयं पश्यसि सर्वज्ञत्वेन (प्रचेताः) मानवानां प्रकृष्टं चेतयिता (च) अथ च (त्वं मित्रमहः) त्वं यज्ञकर्तृभिर्ऋत्विग्भिर्महनीयः-प्रशंसनीयः स्तुतिकर्तृभिः-स्तोतव्यो वा (चिकित्वान् दूतः) चेतनान् सावधानान् वा इतः प्रेरयिता प्रेरणाप्रदोऽसि (आ वह) समन्तात् प्राप्तो भव ॥१॥