Go To Mantra

दैवी॑ पू॒र्तिर्दक्षि॑णा देवय॒ज्या न क॑वा॒रिभ्यो॑ न॒हि ते पृ॒णन्ति॑ । अथा॒ नर॒: प्रय॑तदक्षिणासोऽवद्यभि॒या ब॒हव॑: पृणन्ति ॥

English Transliteration

daivī pūrtir dakṣiṇā devayajyā na kavāribhyo nahi te pṛṇanti | athā naraḥ prayatadakṣiṇāso vadyabhiyā bahavaḥ pṛṇanti ||

Pad Path

दैवी॑ । पू॒र्तिः । दक्षि॑णा । दे॒व॒ऽय॒ज्या । न । क॒व॒ऽअ॒रिभ्यः॑ । न॒हि । ते । पृ॒णन्ति॑ । अथ॑ । नरः॑ । प्रय॑तऽदक्षिणासः । अ॒व॒द्य॒ऽभि॒या । ब॒हवः॑ । पृ॒ण॒न्ति॒ ॥ १०.१०७.३

Rigveda » Mandal:10» Sukta:107» Mantra:3 | Ashtak:8» Adhyay:6» Varga:3» Mantra:3 | Mandal:10» Anuvak:9» Mantra:3


Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (दक्षिणा) ऋत्विक् आदि को दी हुई धन दक्षिणा (देवयज्या) परमदेव की संगति की निमित्त या संगति करानेवाली (दैवी पूर्तिः) अलौकिकी शक्ति कामपूरिका है (कवारिभ्यः-न) कुत्सित धनस्वामियों के लिये नहीं-जो अपने धन में से किसी को नहीं देते, वे कुत्सित धनवाले हैं (नहि ते पृणन्ति)  वे दूसरे को धन दक्षिणा से तृप्त नहीं करते हैं (अथ) और (प्रयतदक्षिणासः नरः-बहवः) दी है-देते हैं दक्षिणा, ऐसे दक्षिणा देनेवाले जन बहुत हैं, जो (अवद्यभिया पृणन्ति) निन्दा के भय से दूसरे को धन दक्षिणा देकर तृप्त करते हैं, धन बहुत है, फिर भी नहीं देते हैं, इस निन्दा से बचने को देते हैं, वे भी अच्छे हैं न देनेवालों से ॥३॥
Connotation: - यज्ञ आदि शुभकर्म प्रवचन श्रवण करके पुरोहित आदि विद्वानों को दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए, परमात्मदेव संगति का स्थूल साधन है, कामना पूर्ण करनेवाली दैवी शक्ति है, जो अपने धन से अन्य का हित नहीं साधते, वे तो पापी हैं, उनकी कामना पूर्ण नहीं करती है, निन्दा के भय से देना भी श्रेष्ठ है, न देनेवालों से अच्छे हैं ॥३॥
Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (दक्षिणा देवयज्या) दक्षिणा खलु देवस्य सङ्गतिनिमित्ता देवस्य सङ्गतिकारिणी तस्माद्दीयते ह्यृत्विग्भ्यः (दैवी पूर्तिः) सैषा खल्वलौकिकी शक्तिः कामपूरयित्री भवति (कवारिभ्यः-न) कुत्सितधनस्वामिभ्यः “ईश्वरोऽप्यरिरेतस्मादेव” [निरु० ५।७] न कामपूर्तिर्भवति, यतः (नहि ते पृणन्ति) नहि ते स्वधनेन दक्षिणारूपेण-ऋत्विगादीन् तर्पयन्ति तस्मात् ते निन्दिताः स्वामिनः सन्ति (अथ प्रयतदक्षिणासः-नरः) अथ च दत्तदक्षिणा जनाः (बहवः) बहवः सन्ति (अवद्यभिया पृणन्ति) निन्दाभीत्याऽन्यान् धनदक्षिणया तर्पयन्ति, यत् सत्यपि धनाबाहुल्ये न प्रयच्छन्ति दानं दक्षिणा वेति तेऽपि शुभाः सन्त्यप्रयुच्छद्भ्यः ॥३॥