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प॒ज्रेव॒ चर्च॑रं॒ जारं॑ म॒रायु॒ क्षद्मे॒वार्थे॑षु तर्तरीथ उग्रा । ऋ॒भू नाप॑त्खरम॒ज्रा ख॒रज्रु॑र्वा॒युर्न प॑र्फरत्क्षयद्रयी॒णाम् ॥

English Transliteration

pajreva carcaraṁ jāram marāyu kṣadmevārtheṣu tartarītha ugrā | ṛbhū nāpat kharamajrā kharajrur vāyur na parpharat kṣayad rayīṇām ||

Pad Path

प॒ज्राऽइ॑व । चर्च॑रम् । जार॑म् । म॒रायु॑ । क्षद्म॑ऽइव । अर्थे॑षु । त॒र्त॒री॒थः॒ । उ॒ग्रा॒ । ऋ॒भू इति॑ । न । आ॒प॒त् । ख॒र॒म॒ज्रा । ख॒रऽज्रुः॑ । वा॒युः । न । प॒र्फ॒र॒त् । क्ष॒य॒त् । र॒यी॒णाम् ॥ १०.१०६.७

Rigveda » Mandal:10» Sukta:106» Mantra:7 | Ashtak:8» Adhyay:6» Varga:2» Mantra:2 | Mandal:10» Anuvak:9» Mantra:7


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (चर्चरम्) चलायमान क्षणभङ्गुर (जारम्) जरणशील-जीर्ण स्वभाववाले (मरायु) मरणस्वभाववाले शरीर को (अर्थेषु) इन्द्रियों के अर्थ में-विषयों में (क्षद्म इव) जलों में वर्तमान जैसे को (उग्रा) प्रतापी (पज्रा-इव) पराजित बलवालों के समान (तर्त्तरीथः) तराते हो (खरमज्रा) तीक्ष्णरूप से शोधन करनेवाले (ऋभू न) दो शिल्पी रथकारों को जैसे रथमोह होता है पुनः मरम्मत के लिये, वैसे तुम्हें प्राप्त होता है। हे दो वैद्यों ! (वायुः-खरज्रुः-न) वायु तीक्ष्ण गतिवाला जैसे  (पर्फरत्) पूर्ण वेग से प्राप्त होता है (रयीणां क्षयत्) धनों-शरीरस्थ धातुरूप धनों को बसाता है ॥७॥
Connotation: - शरीर क्षणभङ्गुर जरा को प्राप्त होनेवाला मरणधर्मी है, फिर इन्द्रियों के विषय में ऐसा पड़ा रहता है, जैसे जलों में डूबने को कोई पड़ा रहता है, इसे अध्यात्म-चिकित्सक और अध्यात्म-उपदेशक याद कराते हैं तथा शरीर-चिकित्सक वैद्य इसे रथ के पुनः मरम्मत करनेवाले शिल्पियों के समान स्वस्थ करते हैं ॥७॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (चर्चरं जारं मरायु) चलायमानं क्षणभङ्गुरं जरणशीलं मरणस्वभावं शरीरम् (अर्थेषु) इन्द्रियार्थेषु (क्षद्म-इव) क्षद्मसु जलेषु “क्षद्म-उदकनाम” [निघ० १।१२] वर्त्तमानं (उग्रा पज्रा इव तर्तरीथः) प्रतापिनौ प्रार्जितबलौ इव तारयथः “पज्रः प्रार्जितः पज्रघोषिणाः प्रार्जितघोषिणौ” [निरु० ५।२१] पज्रः प्रार्जितैश्वर्यः [यजु० ३२।५०] (खरमज्रा ऋभू न आपत्) खरं तीक्ष्णं मज्जयितारौ शोधयितारौ “टुमस्जो शुद्धौ” [तुदादि०] ततो रन् औणादिकः ऋभू शिल्पिनौ रथौ यथा पुनः संस्कारार्थं प्राप्तो भवति तद्वत् युवां (वायुः न खरज्रुः पर्फरत्) वायुरिव तीक्ष्णगतिकः पूर्णवेगं प्राप्तो भवति (रयीणां क्षयत्) शरीरस्य धातुरूपाणि ऐश्वर्य्याणि “द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” क्षियति निवासयति “क्षि निवासे” [तुदादि०] ॥७॥