Word-Meaning: - (अतः-उ) अतएव (अन्नावृधं त्वा) अन्नवर्धक तुझ सूर्य को (पितुभृतः-जनित्रीः-अन्नैः) अन्न को धारण करनेवाली और जीवन-पोषण देनेवाली ओषधियाँ (प्रतिचरन्ति) तुझ सूर्य को अपने अन्दर धारण करती हैं; तेरे बिना वे अन्न धारण नहीं कर सकतीं, न प्राणियों को प्रादुभूर्त कर सकतीं तथा न जीवन-पोषण दे सकती हैं (पुनः-ईम्) पश्चात् ही (ताः-अन्यरूपाः प्रत्येषि) उन अन्यरूप हुई-सुखी हुई ओषधियों को तू पार्थिव अग्नि होकर प्राप्त होता है (मानुषीषु विक्षु होता-भवसि) यतः मानव प्रजाओं के निमित्त उनके भोजन पाक होम आदि अभीष्ट कार्य का सम्पादन करनेवाला होता है-बनता है ॥४॥
Connotation: - सूर्य ओषधियों में अन्न धारण करता है, प्राणियों के लिये उनमें जीवन-पोषण शक्ति देता है। पुनः पकी-सूखी हो जाने पर पार्थिव अग्नि के रूप में होकर उन्हें जला देता है, जो मनुष्यों के लिये भोजन होम आदि अभीष्ट कार्य का साधक बनता है। विद्यासूर्य विद्वान् अपने ज्ञानोपदेश से ओषधियों को फलने, रक्षण करने और प्राणियों को उनके सेवन से स्वस्थ रहने तथा दीर्घ जीवन तक पुष्टि प्राप्त करने के लिये समर्थ बनावें ॥४॥