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ए॒वा नो॑ अग्ने स॒मिधा॑ वृधा॒नो रे॒वत्पा॑वक॒ श्रव॑से॒ वि भा॑हि। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

English Transliteration

evā no agne samidhā vṛdhāno revat pāvaka śravase vi bhāhi | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

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Pad Path

ए॒व। नः॒। अ॒ग्ने॒। स॒म्ऽइधा॑। वृ॒धा॒नः। रे॒वत्। पा॒व॒क॒। श्रव॑से। वि। भा॒हि॒। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.९५.११

Rigveda » Mandal:1» Sukta:95» Mantra:11 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:2» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे काल और भौतिक अग्नि कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (पावक) पवित्र (अग्ने) विद्वन् ! समय और बिजुली रूप भौतिक अग्नि (नः) हम लोगों के (समिधा) अच्छे प्रकाश को प्राप्त किये हुए अपने भाव से वा इन्धन आदि (वृधानः) बढ़ता वा वृद्धि कराता हुआ जिस (रेवत्) परम उत्तम धनवान् (श्रवसे) सुनने तथा अन्न के लिये (एव) ही अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है (उत) और (तत्) इससे (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष आदि (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि वा (द्यौः) बिजुली का प्रकाश (नः) हम लोगों को (मामहन्ताम्) वृद्धि देते हैं, वैसे आप हम लोगों को (वि, भाहि) प्रकाशित करो वा काल वा भौतिक अग्नि प्रकाशित होता है ॥ ११ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। काल और भौतिक अग्नि की विद्या के विना किसी को विद्यायुक्त धन नहीं हो सकता और न कोई समय के अनुकूल वर्त्ताव वर्त्तने के विना प्राणादिकों से उपकार यथावत् ले सकता है, इससे इस समस्त उक्त व्यवहार को जानके सब कार्य्य की सिद्धि कर सदा आनन्द करना चाहिये ॥ ११ ॥इस सूक्त में काल और अग्नि के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, ऐसा जानना चाहिये ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे पावकाग्ने विद्वन् यथा कालो विद्युदग्निर्वा नोऽस्माकं समिधा वृधानो यस्मै रेवदेव श्रवसे विभाति विविधतया प्रकाशत उत तन्मित्रो वरुणोऽदिति सिन्धुः पृथिवी द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्तां तथा त्वमस्मान्विभाहि ॥ ११ ॥

Word-Meaning: - (एव) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (अग्ने) विद्वन् (समिधा) सम्यक् प्रदीप्तेन स्वभावेन प्रदीपकेनेन्धनादिना वा (वृधानः) वर्धमानो वर्धयिता वा (रेवत्) परमोत्तमधनवते। अत्र सुपां सुलुगिति चतुर्थ्या एकवचनस्य लुक्। (पावक) पवित्र (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा (वि) (भाहि) विविधतया प्रकाशते प्रकाशयति वा। तन्नो मित्रो० इत्यादि पूर्वसूक्तान्त्यमन्त्रवद् व्याख्येयम् ॥ ११ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कस्यचित्कालाग्निविद्यया विना विद्यायुक्तं धनं प्राप्तुं शक्यं न खलु कश्चित्समयानुकूलानुष्ठानेन विना प्राणादिभ्य उपकारान् ग्रहीतुं यथावच्छक्नोति तस्मादेतत्सर्वं प्रबुध्य सर्वकार्य्यसिद्धिं कृत्वा सदानन्दयितव्यमिति ॥ ११ ॥ अत्र कालाग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. काल व भौतिक अग्नीच्या विद्येशिवाय कोणाला विद्यायुक्त धन प्राप्त होऊ शकत नाही व कोणी काळानुसार आचरण ठेवल्याशिवाय प्राण इत्यादींकडून यथायोग्य उपकार घेऊ शकत नाही. त्यासाठी वरील संपूर्ण व्यवहारांना जाणून सर्व कार्यांची सिद्धी करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ११ ॥