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व॒धैर्दु॒:शंसाँ॒ अप॑ दू॒ढ्यो॑ जहि दू॒रे वा॒ ये अन्ति॑ वा॒ के चि॑द॒त्रिण॑:। अथा॑ य॒ज्ञाय॑ गृण॒ते सु॒गं कृ॒ध्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

English Transliteration

vadhair duḥśaṁsām̐ apa dūḍhyo jahi dūre vā ye anti vā ke cid atriṇaḥ | athā yajñāya gṛṇate sugaṁ kṛdhy agne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

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Pad Path

व॒धैः। दुः॒ऽशंसा॑न्। अप॑। दुः॒ऽध्यः॑। ज॒हि॒। दू॒रे। वा॒। ये। अन्ति॑। वा॒। के। चि॒त्। अ॒त्रिणः॑। अथ॑। य॒ज्ञाय॑। गृ॒ण॒ते॒। सु॒ऽगम्। कृ॒धि॒। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.९

Rigveda » Mandal:1» Sukta:94» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:31» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब सभा, सेना और शाला आदि के अध्यक्षों के गुणों का उपदेश किया है ।

Word-Meaning: - हे सभा, सेना और शाला आदि के अध्यक्ष विद्वान् ! आप जैसे (दूढ्यः) दुष्ट बुद्धियों और (दुःशंसान्) जिनकी दुःख देनेहारी सिखावटें हैं, उन डाकू आदि (अत्रिणः) शत्रुजनों को (वधैः) ताड़नाओं से (अप, जहि) अपघात अर्थात् दुर्गति से दुःख देओ और शरीर (वा) वा आत्मभाव से (दूरे) दूर (वा) अथवा (अन्ति) समीप में (ये) जो (केचित्) कोई अधर्मी शत्रु वर्त्तमान हों, उनको (अपि) भी अच्छी शिक्षा वा प्रबल ताड़नाओं से सीधा करो। ऐसे करके (अथ) पीछे (यज्ञाय) क्रियामय यज्ञ के लिये (गृणते) विद्या को प्रशंसा करते हुए पुरुष के योग्य (सुगम्) जिस काम में विद्या पहुँचती है, उसको (कृधि) कीजिये, इस कारण ऐसे समर्थ (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) मत दुःख पावें ॥ ९ ॥
Connotation: - सभाध्यक्षादिकों को चाहिये कि उत्तम यत्न के साथ प्रजा में अयोग्य उपदेशों के पढ़ने-पढ़ाने आदि कामों को निवार के दूरस्थ मनुष्यों को मित्र के समान मान के सब प्रकार से प्रेमभाव उत्पन्न करें, जिससे परस्पर निश्चल आनन्द बढ़े ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ सभासेनाशालाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ।

Anvay:

हे अग्ने सभासेनाशालाध्यक्ष विद्वन् ! स त्वं दूढ्यो दुःशंसान्दस्य्वादीनत्रिणो मनुष्यान् वधैरपजहि ये शरीरेणात्मभावेन वा दूरे वान्ति केचिद्वर्त्तन्ते तानपि सुशिक्षया वधैर्वाऽपजहि। एवं कृत्वाऽथ यज्ञाय गृणते पुरुषाय वा सुगं कृधि तस्मादीदृशस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (वधैः) ताडनैः (दुःशंसान्) दुष्टाः शंसा शासनानि येषां तान् (अप) निवारणे (दूढ्याः) दुष्टधियः। पूर्ववदस्य सिद्धिः। (जहि) (दूरे) (वा) (ये) (अन्ति) अन्तिके (वा) पक्षान्तरे (के) (चित्) अपि (अत्रिणः) शत्रवः (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यज्ञाय) क्रियामयाय यागाय (गृणते) विद्याप्रशंसां कुर्वते पुरुषाय (सुगम्) विद्यां गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यस्मिन् कर्मणि (कृधि) कुरु (अग्ने) विद्याविज्ञापक सभासेनाशालाऽध्यक्ष (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ ९ ॥
Connotation: - सभाद्यक्षादिभिः प्रयत्नेन प्रजायां दुष्टोपदेशपठनपाठनादीनि कर्माणि निवार्य दूरसमीपस्थान् मनुष्यान् मित्रवन् मत्वा सर्वथाऽविरोधः संपादनीयः येन परस्परं निश्चलानन्दो वर्धेत ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - सभाध्यक्ष इत्यादींनी उत्तम प्रयत्न करून प्रजेत अयोग्य (दुष्ट) उपदेशाचे अध्ययन, अध्यापनाचे निवारण करून दूर व जवळ असलेल्या माणसांना मित्राप्रमाणे मानून सर्व प्रकारचे प्रेमभाव उत्पन्न करावेत, ज्यामुळे परस्पर निश्चल आनंद वाढेल. ॥ ९ ॥