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पूर्वो॑ देवा भवतु सुन्व॒तो रथो॒ऽस्माकं॒ शंसो॑ अ॒भ्य॑स्तु दू॒ढ्य॑:। तदा जा॑नीतो॒त पु॑ष्यता॒ वचोऽग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

English Transliteration

pūrvo devā bhavatu sunvato ratho smākaṁ śaṁso abhy astu dūḍhyaḥ | tad ā jānītota puṣyatā vaco gne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

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Pad Path

पू॒र्वः॑। दे॒वाः॒। भ॒व॒तु॒। सु॒न्व॒तः। रथः॑। अ॒स्माकम्। शंसः॑। अ॒भि। अ॒स्तु॒। दुः॒ऽध्यः॑। तत्। आ। जा॒नी॒त॒। उ॒त। पु॒ष्य॒त॒। वचः॑। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.८

Rigveda » Mandal:1» Sukta:94» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:31» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब शिल्पी और भौतिक अग्नि के कामों का उपदेश किया है ।

Word-Meaning: - हे (देवाः) विद्वानो ! तुम जिससे (अस्माकम्) हम लोग जो कि शिल्पविद्या को जानने की इच्छा करनेहारे हैं, उनका (पूर्वः) प्रथम सुख करनेहारा (रथः) विमानादि यान (दूढ्यः) जिनको अधिकार नहीं है, उनको दुःखपूर्वक विचारने योग्य (भवतु) हो तथा उक्त गुणवाला रथ (शंसः) प्रशंसनीय (अभि) आगे (अस्तु) हो, (तत्) उस विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त (वचः) वचन की (आ, जानीत) आज्ञा देओ (उत) और उसी से आप (पुष्यत) पुष्ट होओ तथा हम लोगों को पुष्ट करो। हे (अग्ने) उत्तम शिल्पविद्या के जाननेहारे परमप्रवीण ! (सुन्वतः) सुख का निचोड़ करते हुए (तव) आपके वा इस भौतिक अग्नि के (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी कभी न हों ॥ ८ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे विद्वानो ! जिस ढङ्ग से मनुष्यों में आत्मज्ञान और शिल्पव्यवहार की विद्या प्रकाशित होकर सुख की उन्नति हो, वैसा यत्न करो ॥ ८ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः शिल्पिभौतिकाग्निकर्माण्युपदिश्यन्ते ।

Anvay:

हे देवा विद्वांसो यूयं येनाऽस्माकं पूर्वो रथो दूढ्यो भवतु पूर्वो दूढ्यं शंसश्चाभ्यस्तु तद्वच आजानीत। उतापि तेन स्वयं पुष्यताऽस्मान् पोषयत च। हे अग्ने परशिल्पिन् ! सुन्वतस्तवास्याग्नेर्वा सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ८ ॥

Word-Meaning: - (पूर्वः) प्रथमः सुखकारो (देवाः) विद्वांसः (भवतु) (सुन्वतः) सुखाभिषवकर्त्तुः (रथः) विमानादियानम् (अस्माकम्) शिल्पविद्याजिज्ञासूनाम् (शंसः) शस्यते यः सः (अभि) आभिमुख्ये (अस्तु) (दूढ्यः) अनधिकारिभिर्दुःखेन ध्यातुं योग्यः। अत्र दुरुपपदाद् ध्यैधातोर्घञर्थे कविधानमिति कः प्रत्ययः। दुरुपसर्गस्योकारादेश उत्तरपदस्य ष्टुत्वञ्च पृषोदरादित्वान्। (तत्) विद्यासुशिक्षायुक्तम् (आ) (जानीत) (उत) अपि (पुष्यत) अन्येषामपीति दीर्घः। (वचः) वचनम् (अग्ने, सख्ये०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ८ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। हे विद्वांसो येन प्रकारेण मनुष्येष्वात्मशिल्पव्यवहारविद्याः प्रकाशिता भूत्वा सुखोन्नतिः स्यात्तथा प्रयतध्वम् ॥ ८ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे विद्वानांनो! माणसात आत्मज्ञान व शिल्पविद्या ज्याप्रकारे प्रकट होऊन सुख वाढेल असा प्रयत्न करा. ॥ ८ ॥