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तत्ते॑ भ॒द्रं यत्समि॑द्ध॒: स्वे दमे॒ सोमा॑हुतो॒ जर॑से मृळ॒यत्त॑मः। दधा॑सि॒ रत्नं॒ द्रवि॑णं च दा॒शुषेऽग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

English Transliteration

tat te bhadraṁ yat samiddhaḥ sve dame somāhuto jarase mṛḻayattamaḥ | dadhāsi ratnaṁ draviṇaṁ ca dāśuṣe gne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

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Pad Path

तत्। ते॒। भ॒द्रम्। यत्। सम्ऽइ॑द्धः। स्वे। दमे॑। सोम॑ऽआहुतः। जर॑से। मृ॒ळ॒यत्ऽत॑मः। दधा॑सि। रत्न॑म्। द्रवि॑णम्। च॒। दा॒शुषे॑। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.१४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:94» Mantra:14 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:32» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर कैसों के साथ सबको प्रेमभाव करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (अग्ने) समस्त विज्ञान देनेवाले ईश्वर वा विद्वन् ! (यत्) जिस कारण (स्वे) अपने (दमे) दमन किये हुए संसार में (समिद्धः) अच्छे प्रकार प्रकाशित (सोमाहुतः) और ऐश्वर्य्य करनेवाले गुण और पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त किये हुए अग्नि के समान (मृडयत्तमः) अत्यन्त सुख देनेहारे आप सब विद्वानों से (जरसे) अर्चन पूजन को प्राप्त होते हैं वा (दाशुषे) उत्तम शील के निमित्त अपना वर्त्ताव वर्त्तते हुए मनुष्य के लिये (रत्नम्) अति रमणीय (द्रविणम्) चक्रवर्त्ति राज्य आदि कामों से सिद्ध धन (च) और विद्या आदि अच्छे गुणों को (दधासि) धारण करते हैं (तत्) इस कारण ऐसे (ते) आपके (भद्रम्) सुख करनेवाले स्वभाव को (वयम्) हम लोग कभी (मा, रिषाम) मत भूलें किन्तु (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में अच्छे प्रकार स्थिर हों ॥ १४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि वेदप्रमाण और संसार के बार-बार होने न होने आदि व्यवहार के प्रमाण तथा सत्यपुरुषों के वाक्यों से वा ईश्वर और विद्वान् के काम वा स्वभाव को जी में धर सब प्राणियों के साथ मित्रता वर्त्तकर सब दिन विद्या, धर्म की शिक्षा की उन्नति करें ॥ १४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः कीदृशाभ्यां सह सर्वैः प्रेमभावः कार्यं इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे अग्ने यद्यस्मात् स्वे दमे समिद्धः सोमाहुतोऽग्निरिव मृडयत्तमस्त्वं सर्वैर्विद्वद्भिर्जरसे दाशुषे रत्नं द्रविणञ्च विद्यादिशुभान् गुणान् दधासि। तदीदृशस्य ते तव भद्रं शीलं कदाचिद्वयं मा रिषाम तव सख्ये सुस्थिराश्च स्याम ॥ १४ ॥

Word-Meaning: - (तत्) तस्मात् (ते) तव (भद्रम्) कल्याणकारकं शीलम् (यत्) यस्मात् (समिद्धः) सुप्रकाशितः (स्वे) स्वकीये (दमे) दान्ते संसारे (सोमाहुतः) सोमैरैश्वर्य्यकारकैर्गुणैः पदार्थैर्वाऽहुतो वर्द्धितः सन् (जरसे) अर्च्यसे पूज्यसे। अत्र विकरणव्यत्ययेन कर्मणि यकः स्थाने शप्। जरत इत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३। १४। (मृडयत्तमः) अतिशयेन सुखयिता (दधासि) (रत्नम्) रमणीयम् (द्रविणम्) चक्रवर्त्तिराज्यादिसिद्धं धनम् (च) शुभानां गुणानां समुच्चये (दाशुषे) सुशीले वर्त्तमानं कुर्वते मनुष्याय (अग्ने) (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ १४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदसृष्टिक्रमप्रमाणैः सत्पुरुषस्येश्वरस्य विदुषो वा कर्मशीलं च धृत्वा सर्वैः प्राणिभिः सह मित्रतामाचर्य्य सर्वदा विद्याधर्मशिक्षोन्नतिः कार्य्या ॥ १४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी वेद व सृष्टिक्रम प्रमाण व सत्पुरुषांचे वचन तसेच ईश्वराचे व विद्वानाचे कर्मशीलत्व लक्षात घेऊन सर्व प्राण्यांबरोबर मैत्रीचे वर्तन ठेवावे आणि विद्या व धर्मशिक्षणाचे कार्य वृद्धिंगत करावे. ॥ १४ ॥