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त्वं न॑: सोम वि॒श्वतो॒ रक्षा॑ राजन्नघाय॒तः। न रि॑ष्ये॒त्त्वाव॑त॒: सखा॑ ॥

English Transliteration

tvaṁ naḥ soma viśvato rakṣā rājann aghāyataḥ | na riṣyet tvāvataḥ sakhā ||

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Pad Path

त्वम्। नः॒। सो॒म॒। वि॒श्वतः॑। रक्ष॑। रा॒ज॒न्। अ॒घ॒ऽय॒तः। न। रि॒ष्ये॒त्। त्वाऽव॑तः। सखा॑ ॥ १.९१.८

Rigveda » Mandal:1» Sukta:91» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:20» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

Word-Meaning: - हे (सोम) सबके मित्र वा मित्रता देनेवाला ! (त्वम्) आप वा यह ओषधिसमूह (विश्वतः) समस्त (अघायतः) अपने को दोष की इच्छा करते हुए वा दोषकारी से (नः) हम लोगों की (रक्ष) रक्षा कीजिये वा यह ओषधिराज रक्षा करता है, हे (राजन्) सबको रक्षा का प्रकाश करनेवाले ! (त्वावतः) तुम्हारे समान पुरुष का (सखा) कोई मित्र (न) न (रिष्येत्) विनाश को प्राप्त होवे वा सबका रक्षक जो ओषधिगण इसके समान ओषधि का सेवनेवाला पुरुष विनाश को न प्राप्त होवे ॥ ८ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को इस प्रकार ईश्वर की प्रार्थना करके उत्तम यत्न करना चाहिये कि जिससे धर्म के छोड़ने और अधर्म के ग्रहण करने को इच्छा भी न उठे। धर्म और अधर्म की प्रवृत्ति में मन की इच्छा ही कारण है, उसकी प्रवृत्ति और उसके रोकने से कभी धर्म का त्याग और अधर्म का ग्रहण उत्पन्न न हो ॥ ८ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे सोम त्वमयं च विश्वतोऽघायतो नोऽस्मान् रक्ष रक्षति वा। हे राजन् त्वावतः सखा न रिष्येद्विनष्टो न भवेत् ॥ ८ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) (नः) (सोम) सर्वसुहृत्सौहार्दप्रदो वा (विश्वतः) सर्वस्मात् (रक्ष) रक्षति वा। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (राजन्) सर्वरक्षणस्याभिप्रकाशक प्रकाशको वा (अघायतः) आत्मनोऽघमिच्छतो दोषकारिणः (न) निषेधे (रिष्येत्) हिंसितो भवेत् (त्वावतः) त्वत्सदृशस्य (सखा) मित्रः ॥ ८ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरेवमीश्वरं प्रार्थयित्वा प्रयतितव्यम्। यतो धर्मं त्यक्तुमधर्मं ग्रहीतुमिच्छापि न समुत्तिष्ठेत। धर्माधर्मप्रवृत्तौ मनस इच्छैव कारणमस्ति तत्प्रवृत्तौ तन्निरोधे च कदाचिद्धर्मत्यागोऽधर्मग्रहणं च नैवोत्पद्येत ॥ ८ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी याप्रकारे ईश्वराची प्रार्थना करून उत्तम प्रयत्न केले पाहिजेत की ज्यामुळे धर्माचा त्याग व अधर्माचे ग्रहण करण्याची इच्छा ही उत्पन्न होता कामा नये. धर्म व अधर्माच्या प्रवृत्तीमध्ये मनाची इच्छाच कारण आहे. त्याची प्रवृत्ती रोखण्याने कधी धर्माचा त्याग व अधर्माची स्वीकृती उत्पन्न होऊ नये. ॥ ८ ॥