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अ॒स्य श्रो॑ष॒न्त्वा भुवो॒ विश्वा॒ यश्च॑र्ष॒णीर॒भि। सूरं॑ चित्स॒स्रुषी॒रिषः॑ ॥

English Transliteration

asya śroṣantv ā bhuvo viśvā yaś carṣaṇīr abhi | sūraṁ cit sasruṣīr iṣaḥ ||

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Pad Path

अ॒स्य। श्रो॒ष॒न्तु॒। आ। भुवः॑। विश्वाः॑। यः। च॒र्ष॒णीः। अ॒भि। सूर॑म्। चि॒त्। स॒स्रुषीः॑। इषः॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:86» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:11» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो आप लोग (अस्य) इस सुशिक्षित विद्वान् के (इषः) इष्टसाधक किरणों के (चित्) समान (विश्वाः) सब (सस्रुषीः) प्राप्त होने के योग्य (आभुवः) सब ओर से सुखयुक्त (चर्षणीः) मनुष्यरूप प्रजा को जैसे किरणें (सूरम्) सूर्य को प्राप्त होती हैं, वैसे (अभि श्रोषन्तु) सब ओर से सुनो ॥ ५ ॥
Connotation: - जो मनुष्य अच्छी शिक्षा से युक्त, अच्छे प्रकार परीक्षित, शुभलक्षणयुक्त, सम्पूर्ण विद्याओं का वेत्ता, दृढ़ाङ्ग, अतिबली, पढ़ानेहारा, श्रेष्ठ सहाय से सहित, पुरुषार्थी धार्मिक विद्वान् है, वही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होके प्रजा के दुःख का निवारण कर पराविद्या को सुनके प्राप्त होता है, इससे विरुद्ध मनुष्य नहीं ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते

Anvay:

हे मनुष्या ! भवन्तोऽस्य सुशिक्षितस्येषश्चिदिव विश्वाः सस्रुषीराभुवश्चर्षणीः प्रजाः किरणाः सूरमिवाभिश्रोषन्तु ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (अस्य) सुशिक्षितस्य मनुष्यस्य (श्रोषन्तु) शृण्वन्तु। अत्र विकरणव्यत्ययेन लोटि सिप्। (आ) सर्वतः (भुवः) भूमयः (विश्वाः) सर्वाः (यः) (चर्षणीः) मनुष्यान् (अभि) आभिमुख्ये (सूरम्) प्रेरयितारमध्यापकम् (चित्) इव (सस्रुषीः) प्राप्तव्याः (इषः) इष्टसाधकाः किरणाः ॥ ५ ॥
Connotation: - यो मनुष्यः सुशिक्षितः सुपरीक्षितः शुभलक्षणः सर्वविद्यो दृढिष्ठो बलिष्ठोऽध्यापकः सुसहायः पुरुषार्थी धार्मिको विद्वानस्ति, स एव पूर्णान् धर्मार्थकाममोक्षान् प्राप्तः सन् प्रजाया दुःखानि निवार्य परां विद्यां श्रुत्वा प्राप्नोति नातो विरुद्धः ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जो माणूस सुशिक्षित, सुपरीक्षित, शुभलक्षणयुक्त, संपूर्ण विद्या जाणणारा, दृढ अंगाचा, अतिबलवान, अध्यापक, श्रेष्ठ सहायक, पुरुषार्थी, धार्मिक विद्वान असतो तोच धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करून प्रजेच्या दुःखाचे निवारण करून पराविद्येचे श्रवण करून ती प्राप्त करतो यापेक्षा वेगळा माणूस ते प्राप्त करू शकत नाही. ॥ ५ ॥