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गूह॑ता॒ गुह्यं॒ तमो॒ वि या॑त॒ विश्व॑म॒त्रिण॑म्। ज्योति॑ष्कर्ता॒ यदु॒श्मसि॑ ॥

English Transliteration

gūhatā guhyaṁ tamo vi yāta viśvam atriṇam | jyotiṣ kartā yad uśmasi ||

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Pad Path

गूह॑त। गुह्य॑म्। तमः॑। वि। या॒त॒। विश्व॑म्। अ॒त्रिण॑म्। ज्योतिः॑। क॒र्त॒। यत्। उ॒श्मसि॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:86» Mantra:10 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:12» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:10


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - हे (सत्यशवसः) नित्यबलयुक्त सभाध्यक्ष आदि सज्जनो ! जैसे तुम (महित्वना) अपने उत्तम यश से (गुह्यम्) गुप्त करने योग्य व्यवहार को (गूहत) ढांपो और (विश्वम्) समस्त (तमः) अविद्यारूपी अन्धकार को जो कि (अत्रिणम्) उत्तम सुख का विनाश करनेवाला है, उस को (वि यात) दूर पहुँचाओ तथा हम लोग (यत्) जो (ज्योतिः) विद्या के प्रकाश को (उश्मसि) चाहते हैं, उसको (कर्त्त) प्रकट करो ॥ १० ॥
Connotation: - इस मन्त्र में (मरुतः, सत्यशवसः, महित्वना) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। सभाध्यक्षादि को परम पुरुषार्थ से निरन्तर राज्य की रक्षा करनी तथा अविद्यारूपी अन्धकार और शत्रुजन दूर करने चाहिये तथा विद्या, धर्म और सज्जनों के सुखों का प्रचार करना चाहिये ॥ १० ॥ इस सूक्त में जैसे शरीर में ठहरनेहारे प्राण आदि पवन चाहे हुए सुखों को सिद्ध कर सबकी रक्षा करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्षादिकों को चाहिये कि समस्त राज्य की यथावत् रक्षा करें। इस अर्थ के वर्णन से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की उस पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जाननी चाहिये ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे सत्यशवसः सभाद्यध्यक्षादयो ! यूयं यथा स्वमहित्वना गुह्यं गूहत विश्वं तमोऽत्रिणं वियात विनष्टं कुरुत तथा वयं यज्ज्योतिर्विद्याप्रकाशमुश्मसि तत्कर्त्त ॥ १० ॥

Word-Meaning: - (गूहत) आच्छादयत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (गुह्यम्) गोपनीयम् (तमः) रात्रिवदविद्याऽन्धकारम् (वि) विगतार्थे (यात) गमयत (विश्वम्) सर्वम् (अत्रिणम्) परसुखमत्तारम्। अदेस्त्रिनिश्च। (उणा०४.६९) अनेन सूत्रेणाऽदधातोस्त्रिनिः प्रत्ययः। (ज्योतिः) विद्याप्रकाशम् (कर्त्त) कुरुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (यत्) (उश्मसि) कामयामहे ॥ १० ॥
Connotation: - मरुतः सत्यशवसो महित्वनेति पदत्रयमनुवर्त्तते। सभाद्यध्यक्षादिभिः। परमपुरुषार्थेन सततं राज्यं रक्ष्यमविद्याऽधर्मान्धकारः शत्रवश्च निवारणीयाः। विद्याधर्मसज्जनसुखानि प्रचारणीयानीति ॥ १० ॥ अत्र यथा शरीरस्थाः प्राणवायवः प्रियाणि साधयित्वा सर्वान् रक्षन्ति तथैव सभाध्यक्षादिभिः सर्वं राज्यं यथावत् संरक्ष्यमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात (मरुतः सत्यशवसः महित्वना) या तीन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. सभाध्यक्ष इत्यादींनी अत्यंत पुुरुषार्थाने सदैव राज्याचे रक्षण करावे व अविद्यारूपी अंधकार आणि शत्रूंचे निवारण करावे. विद्या, धर्म व सज्जनांचे सुख यांचा प्रचार करावा. ॥ १० ॥