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जि॒ह्मं नु॑नुद्रेऽव॒तं तया॑ दि॒शासि॑ञ्च॒न्नुत्सं॒ गोत॑माय तृ॒ष्णजे॑। आ ग॑च्छन्ती॒मव॑सा चि॒त्रभा॑नवः॒ कामं॒ विप्र॑स्य तर्पयन्त॒ धाम॑भिः ॥

English Transliteration

jihmaṁ nunudre vataṁ tayā diśāsiñcann utsaṁ gotamāya tṛṣṇaje | ā gacchantīm avasā citrabhānavaḥ kāmaṁ viprasya tarpayanta dhāmabhiḥ ||

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Pad Path

जि॒ह्मम्। नु॒नु॒द्रे॒। अ॒व॒तम्। तया॑। दि॒शा। असि॑ञ्चन्। उत्स॑म्। गोत॑माय। तृ॒ष्णऽजे॑। आ। ग॒च्छ॒न्ति॒। ई॒म्। अव॑सा। चि॒त्रऽभा॑नवः। काम॑म्। विप्र॑स्य। त॒र्प॒य॒न्त॒। धाम॑ऽभिः ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:85» Mantra:11 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:10» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - जैसे दाता लोग (अवतम्) निम्नदेशस्थ (जिह्मम्) कुटिल (कुत्सम्) कूप को खोद के (तृष्णजे) तृषायुक्त (गोतमाय) बुद्धिमान् पुरुष को (ईम्) जल से (असिञ्चन्) तृप्त करके (तया) (दिशा) उस अभीष्ट दिशा से (नुनुद्रे) उसकी तृषा को दूर कर देते हैं, जैसे (चित्रभानवः) विविध प्रकाश के आधार प्राणों के समान (धामभिः) जन्म, नाम और स्थानों से (विप्रस्य) विद्वान् के (अवसा) रक्षण से (कामम्) कामना को (तर्पयन्त) पूर्ण करते और सब ओर से सुख को (आगच्छन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे उत्तम मनुष्यों को होना चाहिये ॥ ११ ॥
Connotation: - जैसे मनुष्य कूप को खोद खेत वा बगीचे आदि को सींचके उसमें उत्पन्न हुए अन्न और फलादि से प्राणियों को तृप्त करके सुखी करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि लोग वेदशास्त्रों में विशारद विद्वानों को कामों से पूर्ण करके इनसे विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्म का प्रचार कराके सब प्राणियों को आनन्दित करें ॥ ११ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते कस्मै किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

यथा दातारोऽवतं जिह्ममुत्सं खनित्वा तृष्णजे गोतमाय जलेन ईमसिञ्चन् तया दिशा पिपासां नुनुद्रे चित्रभानवः प्राणा इव धामभिर्विप्रस्यावसा कामं तर्पयन्त सर्वतः सुखमागच्छन्ति तथोत्तमैर्मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥ ११ ॥

Word-Meaning: - (जिह्मम्) कुटिलम् (नुनुद्रे) प्रेरयन्ति (अवतम्) निम्नदेशस्थम् (तया) अभीष्टया (दिशा) (असिञ्चन्) सिञ्चन्ति (उत्सम्) कूपम्। उत्स इति कूपनामसु पठितम्। (निघं०३.२३) (गोतमाय) गच्छतीति गौः सोऽतिशयितो गोतमस्तस्मै भृशं मार्गे गन्त्रे जनाय (तृष्णजे) तृषितुं शीलाय। स्वपितृषोर्नजिङ्। (अष्टा०३.२.१७२) अनेन सूत्रेण तृषधातोर्नजिङ् प्रत्ययः। (आ) समन्तात् (गच्छन्ति) यान्ति (ईम्) पृथिवीम् (अवसा) रक्षणादिना (चित्रभानवाः) आश्चर्यप्रकाशाः (कामम्) इच्छासिद्धिम् (विप्रस्य) मेधाविनः (तर्पयन्त) तर्प्पयन्ति (धामभिः) स्थानविशेषैः ॥ ११ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याः कूपं सम्पाद्य क्षेत्रवाटिकादीनि संसिच्य तत्रोत्पन्नेभ्योऽन्नफलादिभ्यः प्राणिनः सन्तर्प्य सुखयन्ति तथैव सभाध्यक्षादयः शास्त्रविशारदान् विदुषः कामैरलंकृत्यैतैर्विद्यासुशिक्षाधर्मान् सम्प्रचार्य प्राणिन आनन्दयन्तु ॥ ११ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जशी माणसे कूप खोदून शेत किंवा बगीचे इत्यादींना सिंचन करून उत्पन्न झालेले अन्न व फळे इत्यादीनी प्राण्यांना तृप्त करून सुखी करतात तसेच सभाध्यक्ष इत्यादी लोकांनी वेदशास्त्रात विशारद असलेल्या विद्वानांकडून कार्य पूर्ण करून घेऊन त्याच्याकडून विद्या, उत्तम शिक्षण व धर्माचा प्रसार करवून सर्व प्राण्यांना आनंदित करावे. ॥ ११ ॥