Go To Mantra

आपो॒ न दे॒वीरुप॑ यन्ति हो॒त्रिय॑म॒वः प॑श्यन्ति॒ वित॑तं॒ यथा॒ रजः॑। प्रा॒चैर्दे॒वासः॒ प्र ण॑यन्ति देव॒युं ब्र॑ह्म॒प्रियं॑ जोषयन्ते व॒राइ॑व ॥

English Transliteration

āpo na devīr upa yanti hotriyam avaḥ paśyanti vitataṁ yathā rajaḥ | prācair devāsaḥ pra ṇayanti devayum brahmapriyaṁ joṣayante varā iva ||

Mantra Audio
Pad Path

आपः॑। न। दे॒वीः। उप॑। य॒न्ति॒। हो॒त्रिय॑म्। अ॒वः। प॒श्य॒न्ति॒। विऽत॑तम्। यथा॑। रजः॑। प्रा॒चैः। दे॒वासः॑। प्र। न॒य॒न्ति॒। दे॒व॒ऽयुम्। ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म्। जो॒ष॒य॒न्ते॒। व॒राःऽइ॑व ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:83» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:4» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:13» Mantra:2


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - जो (देवासः) विद्वान् लोग मेघ को (आपो न) जैसे जल प्राप्त होते हैं, वैसे (देवीः) विदुषी स्त्रियों को (उपयन्ति) प्राप्त होते हैं और (यथा) जैसे (प्राचैः) प्राचीन विद्वानों के साथ (विततम्) विशाल और जैसे (रजः) परमाणु आदि जगत् का कारण (होत्रियम्) देने-लेने के योग्य (अवः) रक्षण को (पश्यन्ति) देखते हैं (वराइव) उत्तम पतिव्रता विद्वान् स्त्रियों के समान (ब्रह्मप्रियम्) वेद और ईश्वर की आज्ञा में प्रसन्न (देवयुम्) अपने आत्मा को विद्वान् होने की चाहनायुक्त (प्रणयन्ति) नीतिपूर्वक करते और (जोषयन्ते) इसका सेवन करते औरों को ऐसा कराते हैं, वे निरन्तर सुखी क्यों न हो ॥ २ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। किस हेतु से विद्वान् और अविद्वान् भिन्न-भिन्न कहाते हैं, इसका उत्तर है कि जो धर्मयुक्त शुद्ध क्रियाओं को करें, सबके शरीर और आत्मा का यथावत् रक्षण करना जानें और भूगर्भादि विद्याओं से प्राचीन आप्त विद्वानों के तुल्य वेदद्वारा ईश्वरप्रणीत सत्यधर्म मार्ग का प्रचार करें, वे विद्वान् हैं और जो इनसे विपरीत हों वे अविद्वान् हैं, इस प्रकार निश्चय से जानें ॥ २ ॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

ये देवासो मेघमापो न देवीरुपयन्ति तथा प्राचैः सह विततं रजो होत्रियमवः पश्यन्ति वराइव ब्रह्मप्रियं देवयुं प्रणयन्ति जोषयन्ते ते सततं सुखिनः कथं न स्युः ॥ २ ॥

Word-Meaning: - (आपः) व्याप्तिशीलानि (न) इव (देवीः) देदीप्यमानाः (उप) सामीप्ये (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (होत्रियम्) दातव्यादातव्यानामिदम् (अवः) रक्षणादिकम् (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (विततम्) विस्तृतम् (यथा) येन प्रकारेण (रजः) सूक्ष्मं सर्वलोककारणं परमाण्वादिकम् (प्राचैः) प्राचीनैर्विद्वद्भिः (देवासः) प्रशस्ता विद्वांसः (प्र) (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (देवयुम्) आत्मानं देवमिच्छन्तम् (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम् (जोषयन्ते) प्रीतयन्ति (वराइव) यथा प्रशस्तविद्याधर्मकर्मस्वभावाः ॥ २ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। केन हेतुनेमे विद्वांस इमेऽविद्वांस इति विवेचनीयमित्यात्राह जलवच्छान्ता, प्राणवत्प्रियाः, धर्म्यादिदिव्यक्रियाः कुर्युः, सर्वेषां शरीरात्मनोः यथार्थरक्षणं जानीयुः, भूगर्भादिविद्याभिः प्राचीनवेदविद्विद्वद् वर्त्तेरन्, वेदद्वारेश्वरप्रणीतं धर्मं प्रचारयेयुस्ते विद्वांसो विज्ञेयाः, एतद्विपरीताः स्युस्तेऽविद्वांसश्चेति निश्चिनुयुः ॥ २ ॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

N/A

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. कोणत्या कारणामुळे विद्वान व अविद्वान भिन्न भिन्न मानले जातात. त्याचे उत्तर असे की, जे धर्मयुक्त शुद्ध क्रिया करतात, सर्वांच्या शरीर व आत्म्याचे रक्षण करणे जाणतात व भूगर्भ इत्यादी विद्यांनी प्राचीन आप्त विद्वानांप्रमाणे वेदाद्वारे ईश्वरप्रणीत सत्यधर्माच्या मार्गाचा प्रचार करतात ते विद्वान व जे या विपरीत असतील ते अविद्वान आहेत, हे निश्चयाने जाणावे. ॥ २ ॥