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न॒हि नु याद॑धी॒मसीन्द्रं॒ को वी॒र्या॑ प॒रः। तस्मि॑न्नृ॒म्णमु॒त क्रतुं॑ दे॒वा ओजां॑सि॒ सं द॑धु॒रर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

English Transliteration

nahi nu yād adhīmasīndraṁ ko vīryā paraḥ | tasmin nṛmṇam uta kratuṁ devā ojāṁsi saṁ dadhur arcann anu svarājyam ||

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Pad Path

न॒हि। नु। यात्। अ॒धि॒ऽइ॒मसि॑। इन्द्र॑म्। कः। वी॒र्या॑। प॒रः। तस्मि॑न्। नृ॒म्णम्। उ॒त। क्रतु॑म्। दे॒वाः। ओजां॑सि। सम्। द॒धुः॒। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:80» Mantra:15 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:31» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:13» Mantra:15


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब ईश्वर और परम विद्वान् को प्राप्त होकर विद्वान् लोग क्या-क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - जो (परः) उत्तमगुणयुक्त राजा (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) अनुकूलता से सत्कार करता हुआ वर्त्तता है, जिस राज्य में (देवाः) दिव्यगुणयुक्त विद्वान् लोग (नृम्णम्) धन को (क्रतुम्) और बुद्धि वा पुरुषार्थ को (उत) और भी (ओजांसि) शरीर, आत्मा और मन के पराक्रमों को (संदधुः) धारण करते हैं तथा जिस परमेश्वर को प्राप्त होकर हम लोग (वीर्य्या) विद्या आदि वीर्यों को (अधीमसि) प्राप्त होवें, उस (इन्द्रम्) अनन्त पराक्रमी जगदीश्वर वा पूर्ण वीर्य्ययुक्त राजा को प्राप्त होकर (कः) कौन मनुष्य धन को (नु) शीघ्र (नहि) (यात्) प्राप्त हो, उस राज्य में कौन पुरुष धन को तथा बुद्धि वा पुरुषार्थ वा बलों को शीघ्र नहीं धारण करता ॥ १५ ॥
Connotation: - कोई भी मनुष्य परमेश्वर वा परम विद्वान् की प्राप्ति के विना उत्तम विद्या और श्रेष्ठ सामर्थ्य को नहीं प्राप्त हो सकता, इस हेतु से इनका सदा आश्रय करना चाहिये ॥ १५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथेश्वरं परमविद्वांसञ्च प्राप्य विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

यः परः स्वराज्यमन्वर्चन् वर्त्तते यस्मिन् देवा नृम्णमुत क्रतुमुताप्योजांसि नु नहि संदधुर्यं प्राप्य वीर्य्याधीमसि तमिन्द्रं प्राप्य कः नृम्णं नहि यात् तस्मिन् को नृम्णमुत क्रतुमप्योजांसि नहि सन्दध्यात् ॥ १५ ॥

Word-Meaning: - (नहि) निषेधे (नु) शीघ्रं (यात्) यायात्। लेट् प्रयोगः। (अधीमसि) सर्वोपरि विराजमानं प्राप्नुमः (इन्द्रम्) अनन्तपराक्रमं जगदीश्वरं पूर्णं वीर्य्यं विद्वांसं वा (कः) कश्चित् (वीर्या) विद्यादिवीर्याणि (परः) प्रकृष्टगुणः (तस्मिन्) इन्द्रे (नृम्णम्) धनम् (उत) अपि (क्रतुम्) प्रज्ञां पुरुषार्थं वा (देवाः) विद्वांसः (ओजांसि) शरीरात्ममनः पराक्रमान् (सम्) सम्यक् (दधुः) दधति। अन्यत् सर्वे पूर्ववद् बोध्यम्। (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १५ ॥
Connotation: - नहि कश्चिदपि परमेश्वरं विद्वांसं चाप्राप्य विद्यां शुद्धां धियमुत्कृष्टं सामर्थ्यं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतदाश्रयः सदा सर्वैः कर्त्तव्यः ॥ १५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - कोणताही माणूस परमेश्वर व विद्वानाच्या प्राप्तीखेरीज उत्तम विद्या व श्रेष्ठ सामर्थ्य प्राप्त करू शकत नाही त्या कारणाने त्यांचा सदैव आश्रय घेतला पाहिजे. ॥ १५ ॥