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त्रिः स॒प्त यद्गुह्या॑नि॒ त्वे इत्प॒दावि॑द॒न्निहि॑ता य॒ज्ञिया॑सः। तेभी॑ रक्षन्ते अ॒मृतं॑ स॒जोषाः॑ प॒शूञ्च॑ स्था॒तॄञ्च॒रथं॑ च पाहि ॥

English Transliteration

triḥ sapta yad guhyāni tve it padāvidan nihitā yajñiyāsaḥ | tebhī rakṣante amṛtaṁ sajoṣāḥ paśūñ ca sthātṝñ carathaṁ ca pāhi ||

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Pad Path

त्रिः। स॒प्त। यत्। गुह्या॑नि। त्वे॒ इति॑। इत्। प॒दा। अ॒वि॒द॒न्। निऽहि॑ताः। य॒ज्ञिया॑सः। तेभिः॑। र॒क्ष॒न्ते॒। अ॒मृत॑म्। स॒ऽजोषाः॑। प॒शून्। च॒। स्था॒तॄन्। च॒रथ॑म्। च॒। पा॒हि॒ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:72» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:18» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:12» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

इन विद्वानों को विद्या से किसको जान के वर्त्तना योग्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे विद्वान् मनुष्यो ! जैसे (त्वे) कोई (यज्ञियासः) यज्ञ के सिद्ध करनेवाले विद्वान् (यत्) जिन (निहिता) स्थापित विद्यादि धनरूप (गुह्यानि) गुप्त वा सब प्रकार स्वीकार करने (पदा) प्राप्त होने योग्य (सप्त) सात अर्थात् चार वेदों और तीन क्रियाकौशल, विज्ञान और पुरुषार्थों को (त्रिः) श्रवण, मनन और विचार करने से (अविदन्) प्राप्त करते हैं, वैसे तुम भी इनको प्राप्त होओ। हे जानने की इच्छा करनेहारे सज्जन ! जैसे (सजोषाः) समान प्रीति के सेवन करनेवाले (तेभिः) उन्हींसे (अमृतम्) धर्म, अर्थ काम और मोक्षरूपी सुख (पशून्) पशुओं के तुल्य मूर्खत्वयुक्त मनुष्य वा पशु आदि (च) और भृत्य आदि (स्थातॄन्) भूमि आदि स्थावर (च) और राज्य रत्नादि सम्पदा (चरथम्) मनुष्य आदि जङ्गम (च) और स्त्री पुत्र आदि की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं, वैसे उनकी तू (इत्) भी (पाहि) रक्षा कर ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिए कि विद्वानों का अनुकरण करें, मूर्खों का नहीं। जैसे सज्जन पुरुष उत्तम कार्यों में प्रवृत्त होते और दुष्ट कर्मों का त्याग कर देते हैं, वैसा ही सब मनुष्य करें ॥ ६ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

एते विद्यया किं विदित्वा कथं वर्त्तन्त इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्याः ! यथा त्वे यज्ञियासो यद्यानि निहिता गुह्यानि सप्त पदानि त्रिरविन्दँस्तथा त्वमप्येतानि लभस्व। हे जिज्ञासो ! यथैते सजोषास्तेभिरमृतं पशून् चाद् भृत्यादीन् स्थातॄन् चाद्राज्यरत्नादींश्चरथं जङ्गमं चात् पुत्रकलत्रादीन् रक्षन्ते, तथैतानि त्वामित् पाहि ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (त्रि) त्रिवारं श्रवणमनननिदिध्यासनैः (सप्त) साङ्गोपाङ्गाँश्चतुरो वेदान् त्रीन् क्रियाकौशलविज्ञानपुरुषार्थान् (यत्) यानि (गुह्यानि) गुप्तानि सम्यक् स्वीकर्त्तव्यानि (त्वे) केचित् (इत्) अपि (पदा) प्राप्तुमर्हाणि (अविदन्) लभन्ते (निहिता) निधिरूपाणि (यज्ञियासः) यज्ञसम्पादने योग्याः (तेभिः) तैः (रक्षन्ते) पालयन्ति (अमृतम्) धर्मार्थकाममोक्षाख्यममृतसुखम् (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः (पशून्) पशुवद्वर्त्तमानान् मूर्खत्वयुक्तान् गवादीन् वा (च) समुच्चये (स्थातॄन्) भूम्यादिस्थावरान् (चरथम्) मनुष्यादिजङ्गमम् (च) समुच्चये (पाहि) रक्ष ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विदुषामनुकरणं कार्य्यं न किलाऽविदुषाम्। यथा सत्पुरुषाः सत्कार्येषु प्रवर्त्तन्ते दुष्टानि कर्माणि त्यजन्ति तथैव सर्वमनुष्ठेयमिति ॥ ६ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांचे अनुकरण करावे, मूर्खांचे नव्हे. जसे सज्जन पुरुष उत्तम कार्यात प्रवृत्त होतात व दुष्ट कर्मांचा त्याग करतात, तसेच सर्व माणसांनी करावे. ॥ ६ ॥