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मथी॒द्यदीं॒ विभृ॑तो मात॒रिश्वा॑ गृ॒हेगृ॑हे श्ये॒तो जेन्यो॒ भूत्। आदीं॒ राज्ञे॒ न सही॑यसे॒ सचा॒ सन्ना दू॒त्यं१॒॑ भृग॑वाणो विवाय ॥

English Transliteration

mathīd yad īṁ vibhṛto mātariśvā gṛhe-gṛhe śyeto jenyo bhūt | ād īṁ rājñe na sahīyase sacā sann ā dūtyam bhṛgavāṇo vivāya ||

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Pad Path

मथी॑त्। यत्। ई॒म्। विऽभृ॑तः। मा॒त॒रिश्वा॑। गृ॒हेऽगृ॑हे। श्ये॒तः। जेन्यः॑। भूत्। आदी॑म्। राज्ञे॑। न। सही॑यसे। सचा॑। सन्। आ। दू॒त्य॑म्। भृग॑वाणः। वि॒वा॒य॒ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:71» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:15» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:12» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उन स्त्रियों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - (भृगवाणः) अनेकविध पदार्थविद्या से पदार्थों को व्यवहार में लानेहारों के तुल्य विद्याग्रहण की हुई कन्याओ ! जैसे यह (विभृतः) अनेक प्रकार की पदार्थ विद्या का धारण करनेवाला (श्येतः) प्राप्त होने का (जेन्यः) और विजय का हेतु तथा (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोने आदि विहारों का करनेवाला वायु (यत्) जो (दूत्यम्) दूत का कर्म है, उसको (आ विवाय) अच्छे प्रकार स्वीकार करता और (गृहे-गृहे) घर-घर अर्थात् कलायन्त्रों के कोठे-कोठे में (ईम्) प्राप्त हुए अग्नि को (मथीत्) मथता है (आत्) अथवा (सहीयसे) यश सहनेवाले (राज्ञे) राजा के लिये (न) जैसे (ईम्) विजय सुख प्राप्त करानेवाली सेना (सचा) सङ्गति के साथ (सन्) वर्त्तमान (भूत्) होती है, वैसे विद्या के योग से सुख करानेवाली होओ ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्या-ग्रहण के विना स्त्रियों को कुछ भी सुख नहीं होता। जैसे अविद्याओं का ग्रहण किये हुए मूढ़ पुरुष उत्तम लक्षण युक्त विद्वान् स्त्रियों को पीड़ा देते हैं, वैसे विद्या शिक्षा से रहित स्त्री अपने विद्वान् पतियों को दुःख देती हैं। इससे विद्या-ग्रहण के अनन्तर ही परस्पर प्रीति के साथ स्वयंवर विधान से विवाह कर निरन्तर सुखयुक्त होना चाहिये ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ताः कथंभूता भवेयुरित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

भृगवाण इव गृहीतविद्याः कुमार्य्यो यथायं विभृतः श्येतो जेन्यो मातरिश्वा यद्दूत्यं तदाविवाय गृहेगृह ईम्प्राप्तमग्निं मथीदात् सहीयसे राज्ञे नेम् सचा सन् भूत् तथैव विद्यायोगेन सुखकारिण्यो भवन्तु ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (मथीत्) मथति (यत्) (ईम्) प्राप्तमग्निम् (विभृतः) विविधद्रव्यविद्याधारकाः (मातरिश्वा) यो मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति स वायुः (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् (श्येतः) प्राप्तः (जेन्यः) विजयहेतुः। अत्र बाहुलकादौणादिक एन्यप्रत्ययो डिच्च। (भूत्) भवति (आत्) अनन्तरम् (ईम्) विजयप्रापिका सेना (राज्ञे) नृपतये (न) इव (सहीयसे) यशसा सोढे (सचा) सङ्गत्या (सन्) वर्त्तमानः (आ) समन्तात् (दूत्यम्) दूतस्य भावः कर्म वा (भृगवाणः) भृज्जति पदार्थविद्ययानेकान् पदार्थानिति भृगवाणस्तद्वत् (विवाय) संवृणोति ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न खलु विद्या ग्रहणेन विना स्त्रीणां किंचिदपि सुखं भवति यथाऽगृहीतविद्याः पुरुषाः सुलक्षणा विदुषीः स्त्रियः पीडयन्ति, तथैव विद्याशिक्षारहिताः स्त्रियः स्वान् पतीन् पीडयन्ति तस्माद्विद्याग्रहणानन्तरमेव परस्परं प्रीत्या स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा सततं सुखयितव्यम् ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्या ग्रहण केल्याखेरीज स्त्रियांना थोडेही सुख मिळत नाही. अविद्यायुक्त मूढ पुरुष उत्तम लक्षणयुक्त स्त्रियांना त्रास देतात तसे विद्या शिक्षणानेरहित स्त्रिया आपल्या विद्वान पतींना दुःख देतात. त्यामुळे विद्याग्रहणानंतरच परस्पर प्रीतीने स्वयंवर विधानाने विवाह करून निरंतर सुखी झाले पाहिजे. ॥ ४ ॥