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पु॒त्रो न जा॒तो र॒ण्वो दु॑रो॒णे वा॒जी न प्री॒तो विशो॒ वि ता॑रीत् ॥

English Transliteration

putro na jāto raṇvo duroṇe vājī na prīto viśo vi tārīt ||

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Pad Path

पु॒त्रः। न। जा॒तः। र॒ण्वः। दु॒रो॒णे। वा॒जी। न। प्री॒तः। विशः॑। वि। ता॒री॒त् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:69» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:13» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:12» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्य ! (यत्) जो (अग्निः) अग्नि के तुल्य सभाध्यक्ष (दुरोणे) गृह में (जातः) उत्पन्न हुआ (पुत्रः) पुत्र के (न) समान (रण्वः) रमणीय (वाजी) अश्व के (न) समान (प्रीतः) आनन्ददायक (विशः) प्रजा को (वितारीत्) दुःखों से छुड़ाता है (अह्वे) व्याप्त होनेवाले व्यवहार में (सनीडाः) समानस्थान (विशः) प्रजाओं को (विश्वानि) सब (देवत्वा) विद्वानों के गुण, कर्मों को प्राप्त करता है, उसको तू (अश्याः) प्राप्त हो ॥ ३ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को विज्ञान और विद्वानों के सङ्ग के विना सब सुख प्राप्त नहीं हो सकते, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्य ! यद्योऽग्निरिव दुरोणे जातः पुत्रो न रण्वो वाजी न प्रीतो विशो वितारीत्। योऽह्वे नृभिः सनीडा विशो विश्वानि देवत्वा प्रापयति ते त्वमप्यश्याः ॥ ३ ॥

Word-Meaning: - (पुत्रः) पित्रादीनां पालयिता (न) इव (जातः) उत्पन्नः (रण्वः) रमणीयः। अत्र रम धातोर्बाहुलकादौणादिको वः प्रत्ययः। (दुरोणे) गृहे (वाजी) अश्वः (न) इव (प्रीतः) प्रसन्नः (विशः) प्रजाः (वि) विशेषार्थे (तारीत्) दुःखात्सन्तारयेत् (विशः) प्रजाः (यत्) यः (अह्वे) अह्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् (नृभिः) नेतृभिर्मनुष्यैः (सनीडाः) समानस्थानाः (अग्निः) पावक इव पवित्रः सभाध्यक्षः (देवत्वा) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा भावरूपाणि (विश्वानि) सर्वाणि (अश्याः) प्राप्नुयाः। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् ॥ ३ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। नहि मनुष्याणां विज्ञानविद्वत्सङ्गाश्रयेण विना सर्वाणि सुखानि प्राप्तुं शक्यानि भवन्तीति वेदितव्यम् ॥ ३ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेष, उपमा व लुप्तोपमालंकार आहेत. जो सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाशक, अग्नीप्रमाणे सर्व दुःखांना भस्म करणारा परमेश्वर किंवा विद्वान असतो. त्याला आपल्या आत्म्याचे आश्रयस्थान बनवून दुष्ट व्यवहाराचा त्याग करून, सत्य व्यवहारात स्थित राहून माणसांनी सदैव सुख प्राप्त करावे. ॥ ५ ॥