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यस्तुभ्यं॒ दाशा॒द्यो वा॑ ते॒ शिक्षा॒त्तस्मै॑ चिकि॒त्वान्र॒यिं द॑यस्व ॥

English Transliteration

yas tubhyaṁ dāśād yo vā te śikṣāt tasmai cikitvān rayiṁ dayasva ||

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Pad Path

यः। तुभ्य॑म्। दाशा॑त्। यः। वा॒। ते॒। शिक्षा॑त्। तस्मै॑। चि॒कि॒त्वान्। र॒यिम्। द॒य॒स्व॒ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:68» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:12» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:12» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे ईश्वर और विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - जिस ईश्वर वा विद्युत् अग्नि से (विश्वे) सब (प्रेषाः) अच्छी प्रकार जिनकी इच्छा की जाती है, वे बोधसमूह को प्राप्त होते हैं (ऋतस्य) सत्य विज्ञान तथा कारण का (धीतिः) धारण और (विश्वायुः) सब आयु प्राप्त होती है, उसका आश्रय करके जो (ऋतस्य) स्वरूप प्रवाह से सत्य के बीच वर्त्तमान विद्वान् लोग (अपांसि) न्याययुक्त कामों को (चक्रुः) करते हैं (यः) वा मनुष्य इस विद्या को (तुभ्यम्) ईश्वरोपासना, धर्म, पुरुषार्थयुक्त मनुष्य के लिये (दाशात्) देवे वा उससे ग्रहण करे (यः) जो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् मनुष्य (ते) तेरे लिये (शिक्षात्) शिक्षा करे वा तुझ से शिक्षा लेवे (तस्मै) उसके लिये आप (रयिम्) सुवर्णादि धन को (दयस्व) दीजिये ॥ ३ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये ईश्वर की रचना के विना जड़ कारण से कुछ भी कार्य उत्पन्न वा नष्ट होने तथा आधार के विना आधेय भी स्थित होने को समर्थ नहीं हो सकता और कोई मनुष्य कर्म से विना क्षण भर भी स्थित नहीं हो सकता। जो विद्वान् लोग विद्या आदि उत्तम गुणों को अन्य सज्जनों के लिये देते तथा उनसे ग्रहण करते हैं, उन्हीं दोनों का सत्कार करें, औरों का नहीं ॥ ३ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

येनेश्वरेण विद्युता विश्वे प्रेषाः प्राप्यन्ते ऋतस्य धीतिर्विश्वायुश्च भवति तमाश्रित्य ये ऋतस्य मध्ये वर्त्तमाना विद्वांसोऽपांसि चक्रुः। य एतद्विद्यां तुभ्यं दाशाद्वा तव सकाशाद् गृह्णीयात्। यश्चिकित्वांस्ते तुभ्यं शिक्षां दाशाद् वा तव सकाशाद् गृह्णीयात्तस्मै स्वं रयिं दयस्व देहि ॥ ३ ॥

Word-Meaning: - (ऋतस्य) सत्यस्य विज्ञानस्य परमात्मनः कारणस्य वा (प्रेषाः) प्रेष्यन्ते ये प्रकृष्टमिष्यन्ते बोधसमूहास्ते (ऋतस्य) स्वरूपप्रवाहरूपेण सत्यस्य (धीतिः) धारणम् (विश्वायुः) विश्वं सर्वमायुर्यस्माद्यस्य वा (विश्वे) सर्वे (अपांसि) न्याय्यानि कर्माणि (चक्रुः) कुर्वन्ति (यः) (तुभ्यम्) ईश्वरोपासकाय धर्मपुरुषार्थयुक्ताय (दाशात्) पूर्णां विद्यां दद्यात् (यः) (वा) पक्षान्तरे (ते) तुभ्यम् (शिक्षात्) साध्वीं शिक्षां कुर्यात् (तस्मै) महात्मने (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (रयिम्) सुवर्णादिधनम् (दयस्व) देहि ॥ ३ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः मनुष्यैर्नहीश्वररचनया विना जडात्कारणात्किंचित्कार्यमुत्पत्तुं विनष्टुं च शक्यते। नह्याधारेण विनाऽऽधेयं स्थातुमर्हति। नहि कश्चित् कर्म्मणा विना स्थातुं शक्नोति ये विद्वांसः सन्तो विद्यादिशुभगुणान् ददति वा य एतेभ्यो गृह्णन्ति, तेषामेव सदा सत्कारः कर्त्तव्यो नान्येषामिति बोद्धव्यम् ॥ ३ ॥