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यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥

English Transliteration

yuñjanty asya kāmyā harī vipakṣasā rathe | śoṇā dhṛṣṇū nṛvāhasā ||

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Pad Path

यु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ इति॑। विप॑क्षसा। रथे॑। शोणा॑। धृ॒ष्णू इति॑। नृ॒ऽवाह॑सा॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:6» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:11» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:2» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

उक्त सूर्य्य और अग्नि आदि के कैसे गुण हैं, और वे कहाँ-कहाँ उपयुक्त करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

Word-Meaning: - हे विद्वान् लोगो ! (अस्य) सूर्य्य और अग्नि के (काम्या) सब के इच्छा करने योग्य (शोणा) अपने-अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु (धृष्णू) दृढ (विपक्षसा) विविध कला और जल के चक्र घूमनेवाले पांखरूप यन्त्रों से युक्त (नृवाहसा) अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्यादिकों को देशदेशान्तर में पहुँचानेवाले (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षरूप दो घोड़े जिनसे सब का हरण किया जाता है, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथिवी जल और आकाश में जाने आने के लिये अपने-अपने रथों में (युञ्जन्ति) जोड़ें॥२॥
Connotation: - ईश्वर उपदेश करता है कि-मनुष्य लोग जब तक भू जल आदि पदार्थों के गुण ज्ञान और उनके उपकार से भू जल और आकाश में जाने आने के लिये अच्छी सवारियों को नहीं बनाते, तब तक उनको उत्तम राज्य और धन आदि उत्तम सुख नहीं मिल सकते। जरमन देश के रहनेवाले मोक्षमूलर साहब ने इस मन्त्र का विपरीत व्याख्यान किया है। सो यह है कि-अस्य सर्वनामवाची इस शब्द के निर्देश से स्पष्ट मालूम होता है कि इस मन्त्र में इन्द्र देवता का ग्रहण है, क्योंकि लाल रंग के घोड़े इन्द्र ही के हैं। और यहाँ सूर्य्य तथा उषा का ग्रहण नहीं, क्योंकि प्रथम मन्त्र में एक घोड़े का ही ग्रहण किया है। यह उनका अर्थ ठीक नहीं, क्योंकि अस्य इस पद से भौतिक जो सूर्य्य और अग्नि हैं, इन्हीं दोनों का ग्रहण है, किसी देहधारी का नहीं। हरी इस पद से सूर्य्य के धारण और आकर्षण गुणों का ग्रहण तथा शोणा इस शब्द से अग्नि की लाल लपटों के ग्रहण होने से और पूर्व मन्त्र में एक अश्व का ग्रहण जाति के अभिप्राय से अर्थात् एकवचन से ब्रध्न जाति का ग्रहण होता है। और अस्य यह शब्द प्रत्यक्ष अर्थ का वाची होने से सूर्य्यादि प्रत्यक्ष पदार्थों का ग्राहक होता है, इत्यादि हेतुओं से मोक्षमूलर साहब का अर्थ सच्चा नहीं॥२॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

उक्तार्थस्य कीदृशौ गुणौ क्व योक्तव्यावित्युपदिश्यते।

Anvay:

हे विद्वांसोऽस्य काम्यौ शोणौ धृष्णू विपक्षसौ नृवाहसौ हरी रथे युञ्जन्ति युञ्जन्तु॥२॥

Word-Meaning: - (युञ्जन्ति) युञ्जन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (अस्य) सूर्य्यस्याग्नेः (काम्या) कामयितव्यौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (हरी) हरणशीलावाकर्षणवेगगुणौ पूर्वपक्षापरपक्षौ वा। इन्द्रस्य हरी ताभ्यामिदꣳ सर्वं हरतीति। (षड्विंशब्रा०प्रपा०१.ख०१) (विपक्षसा) विविधानि यन्त्रकलाजलचक्रभ्रमणयुक्तानि पक्षांसि पार्श्वे स्थितानि ययोस्तौ (रथे) रमणसाधने भूजलाकाशगमनार्थे याने। यज्ञसंयोगाद्राजा स्तुतिं लभेत, राजसंयोगाद्युद्धोपकरणानि। तेषां रथः प्रथमगामी भवति। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा। (निरु०९.११) रथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यां रथशब्देन विशिष्टानि यानानि गृह्यन्ते। (शोणा) वर्णप्रकाशकौ गमनहेतू च (धृष्णू) दृढौ (नृवाहसौ) सम्यग्योजितौ नॄन् वहतस्तौ॥२॥
Connotation: - ईश्वर उपदिशति-न यावन्मनुष्या भूजलाग्न्यादिपदार्थानां गुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां भूजलाकाशगमनाय यानानि सम्पादयन्ति नैव तावत्तेषां दृढे राज्यश्रियौ सुसुखे भवतः। शारमण्यदेशनिवासिनाऽस्य मन्त्रस्य विपरीतं व्याख्यानं कृतमस्ति। तद्यथा-‘अस्येति सर्वनाम्नो निर्देशात् स्पष्टं गम्यत इन्द्रस्य ग्रहणम्। कुतः, रक्तगुणविशिष्टावश्वावस्यैव सम्बन्धिनौ भवतोऽतः। नात्र खलु सूर्य्योषसोर्ग्रहणम्। कुतः, प्रथममन्त्र एकस्याश्वस्याभिधानात्।’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थः सम्यङ् नास्तीति। कुतः, अस्येति पदेन भौतिकपदार्थयोः सूर्य्याग्न्योर्ग्रहणं, न कस्यचिद्देहधारिणः। हरी इति सूर्य्यस्य धारणाकर्षणगुणयोर्ग्रहणम्। शोणेति पदेनाग्ने रक्तज्वालागुणयोर्ग्रहणम्। पूर्वमन्त्रे ब्रध्नाभिधान एकवचनं जात्यभिप्रायेण चास्त्यतः। इदं शब्दप्रयोगः खलु प्रत्यक्षार्थवाचित्वात् संनिहितार्थस्य सूर्य्यादेरेव ग्रहणाच्च तत्कल्पितोऽर्थोऽन्यथैवास्तीति॥२॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - ईश्वर उपदेश करतो की - माणसे जोपर्यंत भू, जल इत्यादी पदार्थांच्या गुणांचे ज्ञान घेऊन त्यांच्याकडून उपकारित होऊन भूजल व आकाशात गमनागमनासाठी चांगली वाहने तयार करीत नाहीत, तोपर्यंत त्यांना उत्तम राज्य व धन इत्यादी उत्तम सुख मिळू शकत नाहीत. ॥ २ ॥
Footnote: जर्मनीतील मोक्षमूलर साहेबांनी या मंत्राची विपरीत व्याख्या केलेली आहे. ‘अस्य’ सर्वनामवाची शब्दनिर्देश करून हे दर्शविलेले आहे की, या मंत्रात इंद्रदेवतेचे ग्रहण आहे. कारण लाल रंगाचे घोडे इंद्राचे आहेत. येथे सूर्य व उषेचे ग्रहण केलेले नाही, कारण प्रथम मंत्रात एका घोड्याचेच ग्रहण केलेले आहे. हा त्यांचा अर्थ योग्य नाही, कारण ‘अस्य’ या पदाने भौतिक सूर्य व अग्नी या दोन्हींचा स्वीकार केलेला आहे. एखाद्या देहधारीचा नव्हे. ‘हरी’ या पदाने सूर्याचे धारण व आकर्षण गुणांचा स्वीकार व ‘शोणा’ या शब्दाने अग्नीच्या लाल ज्वाळांचा स्वीकार केलेला आहे. पूर्व मंत्रात एका अश्वाचा स्वीकार जातीच्या अभिप्रायाने अर्थात एकवचनाने अश्वजातीचे ग्रहण केलेले आहे. ‘अस्य’ हा शब्द प्रत्यक्ष अर्थवाची असल्यामुळे सूर्य इत्यादी प्रत्यक्ष पदार्थांचा ग्राहक असतो. यामुळे मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ खरा नव्हे. ॥ २ ॥