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त्वं दि॒वो ध॒रुणं॑ धिष॒ ओज॑सा पृथि॒व्या इ॑न्द्र॒ सद॑नेषु॒ माहि॑नः। त्वं सु॒तस्य॒ मदे॑ अरिणा अ॒पो वि वृ॒त्रस्य॑ स॒मया॑ पा॒ष्या॑रुजः ॥

English Transliteration

tvaṁ divo dharuṇaṁ dhiṣa ojasā pṛthivyā indra sadaneṣu māhinaḥ | tvaṁ sutasya made ariṇā apo vi vṛtrasya samayā pāṣyārujaḥ ||

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Pad Path

त्वम्। दि॒वः। ध॒रुण॑म्। धि॒षे॒। ओज॑सा। पृ॒थि॒व्याः। इ॒न्द्र॒। सद॑नेषु। माहि॑नः। त्वम्। सु॒तस्य॑। मदे॑। अ॒रि॒णाः॒। अ॒पः। वि। वृ॒त्रस्य॑। स॒मया॑। पा॒ष्या॑। अ॒रु॒जः॒ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:56» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:21» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक सभाध्यक्ष ! (माहिनः) पूजनीय महत्त्व गुणवाले (त्वम्) आप (ओजसा) बल से जैसे सविता (दिवः) दिव्यगुणयुक्त प्रकाश से (पृथिव्याः) पृथिवी और पदार्थों का (धरुणम्) आधार है, वैसे (सदनेषु) गृहादिकों में (धिषे) धारण करते हो वा जैसे बिजुली (वृत्रस्य) मेघ को मार कर (अपः) जलों को वर्षाती है, वैसे (त्वम्) आप (सुतस्य) उत्पन्न हुए वस्तुओं के (मदे) आनन्दकारक व्यवहार में (समया) समय में (अपः) जलों की वर्षा से सुख देते हो, वैसे (पाष्या) अच्छे प्रकार चूर्ण करने रूप सिद्ध किये हुए रस के (मदे) आनन्दरूपी व्यवहार में (पाष्या) चूर्णकारक क्रिया से शत्रुओं को (व्यरुजः) मरणप्रायः करके (अरिणाः) सुख को प्राप्त कीजिये ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् सूर्य्य के समान राज्य को सुप्रकाशित कर शत्रुओं का निवारण करके प्रजा का पालन करते हैं, वैसा ही हम सब लोगों को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ६ ॥ इस सूक्त में सूर्य्य वा विद्वान् के गुणवर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे इन्द्र ! माहिनस्त्वमोजसा यथा सूर्यो दिवः पृथिव्या धरुणं सदनेषु धरति तथा प्रजा धिषे यथेन्द्रो विद्युद् वृत्रस्य हननं कृत्वाऽपो वर्षति तथा त्वं सुतस्य मदे समया पाष्या शत्रून् व्यरुजः सुखमरिणाः ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) दिव्यगुणसमूहान् (धरुणम्) सर्वमूर्त्तद्रव्याणामाधारम् (धिषे) दधासि। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे० इति द्विर्वचनाभावः। (ओजसा) बलेन (पृथिव्याः) भूमे राज्यम् (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक (सदनेषु) गृहादिषु (माहिनः) पूज्या महत्त्वगुणविशिष्टाः (त्वम्) शत्रुविनाशकः (सुतस्य) सम्पादितस्य (मदे) आह्लादकारके व्यवहारे (अरिणाः) प्राप्नोषि (अपः) जलानि (वि) विशेषेण (वृत्रस्य) मेघस्य (समया) यथासमयम् (पाष्या) पेषणयोग्यानि कर्माणि। अत्र पिष्लृधातोर्ण्यत् वर्णव्यत्ययेन पूर्वस्याऽऽकारः सुपां सुलुग् इत्याकारादेशश्च। (अरुजः) आमर्दय ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सूर्यवन्न्यायं प्रकाश्य शत्रून्निवार्य्य प्रजाः पालयन्ति तथैवाऽस्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥ ६ ॥ अत्र सूर्य्यविद्युद्गुणवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान सूर्याप्रमाणे राज्याला सुप्रकाशित करून शत्रूंचे निवारण करून प्रजेचे पालन करतात तसेच आम्ही सर्व लोकांनी अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ६ ॥