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नि यद्वृ॒णक्षि॑ श्वस॒नस्य॑ मू॒र्धनि॒ शुष्ण॑स्य चिद्व्र॒न्दिनो॒ रोरु॑व॒द्वना॑। प्रा॒चीने॑न॒ मन॑सा ब॒र्हणा॑वता॒ यद॒द्या चि॑त्कृ॒णवः॒ कस्त्वा॒ परि॑ ॥

English Transliteration

ni yad vṛṇakṣi śvasanasya mūrdhani śuṣṇasya cid vrandino roruvad vanā | prācīnena manasā barhaṇāvatā yad adyā cit kṛṇavaḥ kas tvā pari ||

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Pad Path

नि। यत्। वृ॒णक्षि॑। श्व॒स॒नस्य॑। मू॒र्धनि॑। शुष्ण॑स्य। चि॒त्। व्र॒न्दिनः॑। रोरु॑वत्। वना॑। प्रा॒चीने॑न। मन॑सा। ब॒र्हणा॑ऽवता। यत्। अ॒द्य। चि॒त्। कृ॒णवः॑। कः। त्वा॒। परि॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:54» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:17» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे सभाध्यक्ष विद्वान् ! (यत्) जो आप जैसे सविता (वना) रश्मियुक्त मेघ का निवारण करता है, वैसे (प्राचीनेन) सनातन (बर्हणावता) अनेक प्रकार वृद्धियुक्त (मनसा) विज्ञान से (श्वसनस्य) प्राणवद् बलवान् (शुष्णस्य) शोषणकर्त्ता के (मूर्द्धनि) उत्तम अङ्ग में प्रहार के (चित्) समान (व्रन्दिनः) निन्दित कर्म करनेवाले दुष्ट मनुष्यों को (रोरुवत्) रोदन कराते हुए (यत्) जिस कारण (अद्य) आज (निवृणक्षि) निरन्तर उन दुष्टों को अलग करते हो, इससे (चित्) भी (त्वा) आप के (कृणवः) मारने को (कः) कोई भी समर्थ (परि) नहीं हो सकता ॥ ५ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलु्प्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर अपने अनादि विज्ञान युक्त न्याय से सबको शिक्षा देता और सूर्य मेघ को काट-काट कर गिराता है, वैसे ही सभापति आदि धर्म से सब की शिक्षा देवें और शत्रुओं को नष्ट-भ्रष्ट करें ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे विद्वन् ! यद्यस्त्वं सूर्य्यो वना मेघमिव प्राचीनेन बर्हणावता मनसा श्वसनस्य शुष्णस्य मूर्धनि वर्त्तमाने व्रन्दिनो रोरुवत्सन् यद्यस्मादद्य निवृणक्षि तत्तस्माच्चिदपि त्वा त्वां कः परि कृणवो हिंसितुं शक्नोति ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (नि) नितराम् (यत्) यः (वृणक्षि) त्यजसि (श्वसनस्य) श्वसन्ति येन प्राणेन तस्य (मूर्द्धनि) उत्तमाङ्गे (शुष्णस्य) बलस्य (चित्) इव (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दाः सन्ति येषां तान् दुष्टान् (रोरुवत्) पुनः पुना रोदनं कारयन् सन् (वना) रश्मियुक्तेन। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (प्राचीनेन) सनातनेन (मनसा) विज्ञानेन (बर्हणावता) बहुविधं बर्हणं वर्धनं विद्यते यस्य तेन। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (यत्) यस्मात् (अद्य) अस्मिन् दिने। निपातस्य च (अष्टा०६.३.१३६) इति दीर्घः। (चित्) अपि (कृणवः) हिंसितुं शक्नोति (कः) कश्चिदेव (त्वा) त्वाम् (परि) निषेधे ॥ ५ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः स्वकीयेनानादिना विज्ञानेन सर्वं न्यायेन प्रशास्ति सूर्य्यश्च मेघं हिनस्ति तथैव सभाध्यक्षो धर्मेण सर्वं प्रशिष्याच्छत्रूँश्च हिंस्यात् ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा परमेश्वर आपल्या अनादी विज्ञानयुक्त न्यायाने सर्वांना शिक्षण देतो व सूर्य मेघाला छिन्नविछिन्न करून खाली पाडतो तसेच सभापती इत्यादींनी धर्माने सर्वांना शिक्षण द्यावे व शत्रूंना नष्टभ्रष्ट करावे. ॥ ५ ॥