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यु॒धा युध॒मुप॒ घेदे॑षि धृष्णु॒या पु॒रा पुरं॒ समि॒दं हं॒स्योज॑सा। नम्या॒ यदि॑न्द्र॒ सख्या॑ परा॒वति॑ निब॒र्हयो॒ नमु॑चिं॒ नाम॑ मा॒यिन॑म् ॥

English Transliteration

yudhā yudham upa ghed eṣi dhṛṣṇuyā purā puraṁ sam idaṁ haṁsy ojasā | namyā yad indra sakhyā parāvati nibarhayo namuciṁ nāma māyinam ||

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Pad Path

यु॒धा। युध॑म्। उप॑। घ॒। इत्। ए॒षि॒। धृ॒ष्णु॒ऽया। पु॒रा। पुर॑म्। सम्। इ॒दम्। हं॒सि॒। ओज॑सा। नम्या॑। यत्। इ॒न्द्र॒। सख्या॑। प॒रा॒ऽवति॑। नि॒ऽब॒र्हयः॑। नमु॑चिम्। नाम॑। मा॒यिन॑म् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:53» Mantra:7 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:16» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:7


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह सेनाध्यक्ष कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष ! (यत्) जिस कारण तुम (धृष्णुया) दृढ़ता आदि गुणयुक्त (सख्या) मित्रसमूह (युधा) युद्ध करनेवाले (ओजसा) बल के साथ (पुरा) पहिले (इदम्) इस (पुरम्) शत्रुओं के नगर को (हंसि) नष्ट करते तथा (युधम्) युद्ध करते हुए शत्रु को (इत्) भी (घ) निश्चय करके (एषि) प्राप्त करते और (नम्या) जैसे रात्रि अन्धकार से सब पदार्थों का आवरण करती है, वैसे अन्याय से अन्धकार करनेवाले (नाम) प्रसिद्ध (नमुचिम्) छुट्टी से रहित (मायिनम्) छल-कपटयुक्त दुष्ट कर्म करनेवाले मनुष्य वा पश्वादि को (परावति) दूर देश में (निबर्हयः) निःसारण करते हो, इससे आपको मूर्द्धाभिषिक्त करके हम लोग सभाध्यक्ष के अधिकार में स्वीकार करके राजपदवी से मान्य करते हैं ॥ ७ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि बहुत उत्तम-उत्तम मित्रों को प्राप्त, दुष्ट शत्रुओं का निवारण, दुष्ट दल वा शत्रुओं के पुरों को विदारण, सब अन्यायकारी मनुष्यों को निरन्तर कैदघर में बाँध, ताड़ना दे और धर्मयुक्त चक्रवर्त्ति राज्य को पालन करके उत्तम ऐश्वर्य को सिद्ध करें ॥ ७ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स सेनाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! यद्यस्मात्त्वं धृष्णुया सख्या युधौजसा च सह पुरेदं पुरं हंसि युधमिद् घ शत्रुमप्येवैषि नम्या रात्रिरिवान्यायेनान्धकारिणं नाम प्रसिद्धं नमुचिं मायिनं परावति दूरदेशे निबर्हयस्तस्मात्त्वां मूर्धाभिषिक्तं कृत्वा वयं सभाद्यध्यक्षत्वेन स्वीकृत्य राजानमभिषिञ्चामः ॥ ७ ॥

Word-Meaning: - (युधा) यो योधयति तेन (युधम्) युध्यमानम् (उप) सामीप्ये (घ) एव (इत्) अपि (एषि) प्राप्नोषि (धृष्णुया) धार्ष्ट्यादिगुणयुक्तेन धृष्टेन (पुरा) पूर्वम् (पुरम्) शत्रुनगरम् (सम्) एकीभावे (इदम्) यद्यद्गोचरं तत्तत् (हंसि) नाशयसि (ओजसा) बलेन (नम्या) यथा रात्रिरन्धकारेण सर्वान् पदार्थानावृणोति तथा । नम्या इति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं०१.७) (यत्) यस्मात् (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष (सख्या) मित्रसमूहेन (परावति) दूरदेशे (निबर्हयः) निःसारय (नमुचिम्) न विद्यते मुचिर्मोक्षणं यस्य तम्। अत्र इक् कृष्यादिभ्यः (अष्टा०वा०३.३.१०८) इति मुचधातोर्भाव इक्। नभ्राण्नपान्नवेदाना० (अष्टा०६.३.७५) इति निपातनान्नञः प्रकृतिभावः। (नाम) प्रसिद्धम् (मायिनम्) कुत्सिता माया विद्यते यस्य तं छलकपटयुक्तं दुष्टकर्मकारिणं मनुष्यम् ॥ ७ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्बहून् मित्रान् सम्पाद्य दुष्टान् शत्रून्निवार्य दुष्टदलानि शत्रूणां पुराणि च विदार्य सर्वानन्यायकारिणो मनुष्यादीन् सततं कारागारे बद्ध्वा धर्म्यं चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशास्य परमैश्वर्यं सम्पादनीयम् ॥ ७ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - भावार्थ- या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी (सभाध्यक्षासह) पुष्कळ उत्तम मित्रांना प्राप्त करावे, दुष्ट शत्रूंचे निवारण करावे, दुष्ट दल व त्यांच्या नगराचा विध्वंस करावा. सर्व अन्यायी माणसांना निरन्तर कैद करून ताडना द्यावी आणि धर्मयुक्त चक्रवर्ती राज्याचे पालन करून उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करावे. ॥ ७ ॥