Go To Mantra

न्यू॒३॒॑षु वाचं॒ प्र म॒हे भ॑रामहे॒ गिर॒ इन्द्रा॑य॒ सद॑ने वि॒वस्व॑तः। नू चि॒द्धि रत्नं॑ सस॒तामि॒वावि॑द॒न्न दु॑ष्टु॒तिर्द्र॑विणो॒देषु॑ शस्यते ॥

English Transliteration

ny ū ṣu vācam pra mahe bharāmahe gira indrāya sadane vivasvataḥ | nū cid dhi ratnaṁ sasatām ivāvidan na duḥṣṭutir draviṇodeṣu śasyate ||

Mantra Audio
Pad Path

नि। ऊँ॒ इति॑। सु। वाच॑म्। प्र। म॒हे। भ॒रा॒म॒हे॒। गिरः॑। इन्द्रा॑य। सद॑ने। वि॒वस्व॑तः। नु। चि॒त्। हि। रत्न॑म्। स॒स॒ताम्ऽइ॑व। अवि॑दत्। न। दुः॒ऽस्तु॒तिः। द्र॒वि॒णः॒ऽदेषु॑। श॒स्य॒ते॒ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:53» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:15» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:1


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

जब सायणाचार्य्यादि वा मोक्षमूलरादिकों को छन्द और षड्जादि स्वरों का भी ज्ञान नहीं तो भाष्य करने की योग्यता तो कैसे होगी ॥अब त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में मनुष्यों को धर्म विचार कर क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (महे) महासुखप्रापक (सदने) स्थान में (इन्द्राय) परमैश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (सु) शुभलक्षणयुक्त (वाचम्) वाणी को (निभरामहे) निश्चित धारण करते हैं, स्वप्न में (ससतामिव) सोते हुए पुरुषों के समान (विवस्वतः) सूर्यप्रकाश में (रत्नम्) रमणीय सुवर्णादि के समान (गिरः) स्तुतियों को धारण करते हैं, किन्तु (द्रविणोदेषु) सुवर्णादि वा विद्यादिकों के देनेवाले हम लोगों में (दुष्टुतिः) दुष्ट स्तुति और पाप की कीर्ति अर्थात् निन्दा (न प्रशस्यते) श्रेष्ठ नहीं होती, वैसे तुम भी होवो ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे निद्रा में स्थित हुए मनुष्य आराम को प्राप्त होते हैं, वैसे सर्वदा विद्या उत्तम शिक्षाओं से संस्कार की हुई वाणी को स्वीकार प्रशंसनीय कर्म को सेवन और निन्दा को दूरकर स्तुति का प्रकाश होने के लिये अच्छे प्रकार प्रयत्न करना चाहिये ॥ १ ॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

सायणाचार्य्यादीनां मोक्षमूलरादीनां वा यदि छन्दःषड्जादिस्वरज्ञानमपि न स्यात्तर्हि भाष्यकरणयोग्यता तु कथं भवेत् ॥ मनुष्यैर्धर्मं विचार्य्य किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! यथा वयं महे सदन इन्द्राय वाचं सुभरामहे स्वप्ने ससतामिव विवस्वतः सूर्यस्य प्रकाशे रत्नमिव गिरो निभरामहे, किन्तु द्रविणोदेष्वस्मासु दुष्टुतिर्न प्रशस्ता न भवति तथा यूयं भवत ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (नि) नितराम् (उ) वितर्के (सु) शोभने (वाचम्) वाणीम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (महे) महति महासुखप्रापके (भरामहे) धरामहे (गिरः) स्तुतयः (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापणाय (सदने) सीदन्ति यस्मिँस्थाने तस्मिन् (विवस्वतः) यथा प्रकाशमानस्य सूर्यस्य प्रकाशे (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (हि) खलु (रत्नम्) रमणीयं सुवर्णादिकम् (ससतामिव) यथा स्वपतां पुरुषाणां तथा (अविदत्) विन्दति प्राप्नोति (न) निषेधे (दुःस्तुतिः) दुष्टा चासौ स्तुतिः पापकीर्तिश्च सा (द्रविणोदेषु) ये द्रविणांसि सुवर्णादीनि द्रव्यप्रदानि विद्यादीनि च ददति तेषु (शस्यते) प्रशस्ता भवति ॥ १ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा निद्रावस्था मनुष्या आरामं प्राप्नुवन्ति, तथा सर्वदा विद्यासुशिक्षाभ्यां संस्कृतां वाचं स्वीकृत्य प्रशस्तं कर्म सेवित्वा निद्रां दूरीकृत्य स्तुतिप्रकाशाय प्रयतितव्यम् ॥ १ ॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात विद्वान सभाध्यक्ष व प्रजापुरुषांनी परस्पर प्रीतीने राहून सुख प्राप्त करावे हे सांगितलेले आहे. त्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा निद्रिस्त माणसाला आराम मिळतो तसे नेहमी विद्या व उत्तम संस्कारांनी युक्त वाणीचा स्वीकार करून प्रशंसनीय कर्म करावे. निंदेचा त्याग करून स्तुती होईल असा प्रयत्न करावा. ॥ १ ॥
Footnote: जेथे सायणाचार्य इत्यादी व मोक्षमूलर इत्यादींना छंद व षड्ज इत्यादी स्वरांचेही ज्ञान नाही तर भाष्य करण्याची योग्यता कशी असेल?