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परीं॑ घृ॒णा च॑रति तित्वि॒षे शवो॒ऽपो वृ॒त्वी रज॑सो बु॒ध्नमाश॑यत्। वृ॒त्रस्य॒ यत्प्र॑व॒णे दु॒र्गृभि॑श्वनो निज॒घन्थ॒ हन्वो॑रिन्द्र तन्य॒तुम् ॥

English Transliteration

parīṁ ghṛṇā carati titviṣe śavo po vṛtvī rajaso budhnam āśayat | vṛtrasya yat pravaṇe durgṛbhiśvano nijaghantha hanvor indra tanyatum ||

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Pad Path

परि॑। ई॒म्। घृ॒णा। च॒र॒ति॒। ति॒त्वि॒षे। शवः॑। अ॒पः। वृ॒त्वी। रज॑सः। बु॒ध्नम्। आ। अ॒श॒य॒त्। वृ॒त्रस्य॑। यत्। प्र॒व॒णे। दुः॒ऽगृभि॑श्वनः। नि॒ऽज॒घन्थ॑। हन्वोः॑। इ॒न्द्र॒। त॒न्य॒तुम् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:52» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:13» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह सभाध्यक्ष किसके तुल्य क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान सभाध्यक्ष जैसे (तित्विषे) प्रकाश के लिये (यत्) जिस सूर्य का (शवः) बल वा (घृणा) दीप्ति (ईम्) जल को (परिचरति) सेवन करती है, जो (दुर्गृभिश्वनः) दुःख से जिसका ग्रहण हो (वृत्रस्य) मेघ का (बुध्नम्) शरीर (रजसः) अन्तरिक्ष के मध्य में (आपः) जल को (वृत्वी) आवरण करके (अशयत्) सोता है, उसके (हन्वोः) आगे-पीछे के मुख के अवयवों में (तन्यतुम्) बिजली को छोड़कर उसे (प्रवणे) नीचे (निजघन्थ) मार कर गिरा देता है, वैसे वर्त्तमान होकर न्याय में प्रवृत्त हूजिये ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सूर्य वा मेघ के समान वर्त्त के विद्या और न्याय की वर्षा का प्रकाश करें ॥ ६ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स किंवत्किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे इन्द्र ! यथा तित्विषे यस्येन्द्रस्य सूर्यस्य शवो बलं घृणा दीप्तिरीमुदकं परिचरति यो यस्य दुर्गृभिश्वनो वृत्रस्य मेघस्य बुध्नं शरीरं रजसोऽन्तरिक्षस्य मध्येऽपो वृत्वी जलमावृत्याशयच्छेते तस्य हन्वोरग्रपार्श्वभागयोरुपरि तन्यतुं विद्युतं प्रहृत्य प्रवणे निजघन्थ तथा वर्त्तमानः सन्न्याये प्रवर्त्तस्व ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (परि) सर्वतः (ईम्) उदकम्। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (घृणा) दीप्तिः क्षरणं वा (चरति) सेवते (तित्विषे) प्रकाशाय (शवः) बलम् (अपः) जलानि (वृत्वी) आवृत्य (रजसः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (बुध्नम्) शरीरम्। इदमपीतरबुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति। (निरु०१०.४४) (आ) समन्तात् (अशयत्) शेते (वृत्रस्य) मेघस्य (यम्) यस्य (प्रवणे) गमने (दुर्गृभिश्वनः) दुःखेन गृभिर्गृहिर्ग्रहणं श्वाभिव्याप्तिर्यस्य तस्य। अत्र गृहधातोः इक् कृष्यादिभ्यः (अष्टा०३.३.१०८वा०) इक् हस्य भत्वं च। अशूङ् व्याप्तावित्यस्मात् कनिन् प्रत्ययो वुगागमोऽकारलोपश्च। (निजघन्थ) नितरां हन्ति (हन्वोः) मुखावयवयोरिव (इन्द्र) सवितृवद्वर्त्तमान (तन्यतुम्) विद्युतम् ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यत्सूर्यमेघवद्वर्त्तित्वा विद्यान्यायवर्षा प्रकाशीकार्येति ॥ ६ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सूर्य व मेघाप्रमाणे वागून विद्या व न्यायाचा वर्षाव करावा. ॥ ६ ॥