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न यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी अनु॒ व्यचो॒ न सिन्ध॑वो॒ रज॑सो॒ अन्त॑मान॒शुः। नोत स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑त॒ एको॑ अ॒न्यच्च॑कृषे॒ विश्व॑मानु॒षक् ॥

English Transliteration

na yasya dyāvāpṛthivī anu vyaco na sindhavo rajaso antam ānaśuḥ | nota svavṛṣṭim made asya yudhyata eko anyac cakṛṣe viśvam ānuṣak ||

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Pad Path

न। यस्य॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अनु॑। व्यचः॑। न। सिन्ध॑वः। रज॑सः। अन्त॑म्। आ॒न॒शुः। न। उ॒त। स्वऽवृ॑ष्टिम्। मदे॑। अ॒स्य॒। युध्य॑तः। एकः॑। अ॒न्यत्। च॒कृ॒षे॒। विश्व॑म्। आ॒नु॒षक् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:52» Mantra:14 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:14» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - (यस्य) जिस (रजसः) ऐश्वर्ययुक्त जगदीश्वर की (अनुव्यचः) अनन्तव्याप्ति के अनुकूल वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) प्रकाश अप्रकाश युक्त लोक और चन्द्रमादि भी (अन्तम्) अन्त अर्थात् सीमा को (न) नहीं (आनशुः) प्राप्त होते हैं, हे परमात्मन् ! जैसे (स्ववृष्टिम्) अपने पदार्थों की रक्षा के प्रति (मदे) आनन्द में (युध्यतः) युद्ध करते हुए मेघ का सूर्य के सामने विजय नहीं होता, वैसे (एकः) सहायरहित अद्वितीय जगदीश्वर ने (अन्यत्) अपने से भिन्न द्वितीय (विश्वम्) जगत् को (आनुषक्) अपनी व्याप्ति से युक्त किया है, इससे आप उपासना के योग्य हैं ॥ १४ ॥
Connotation: - जैसे परमेश्वर के किसी गुण की कोई मनुष्य वा कोई लोक सीमा को ग्रहण नहीं कर सकता और जैसे वह पापयुक्त कर्म करनेवाले मनुष्यों के लिये दुःखरूप फल देने से पीड़ा देता दुष्टों की ताड़ना करता और सूर्य मेघाऽवयवों को विदारण करता और युद्ध करनेवाले मनुष्य के समान वर्त्तता है, वैसे ही सब सज्जन मनुष्यों को वर्त्तना चाहिये ॥ १४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

यस्य रजसः परमेश्वरस्याऽनुव्यचोऽनुगताया अनन्ताया व्याप्तेर्द्यावापृथिवी चन्द्रादयश्चान्तं नानशुः न व्याप्नुवन्ति नोतापि सिन्धवो व्याप्नुवन्ति। हे परमात्मँस्त्वं यथा स्ववृष्टिं प्रति मदे युध्यतो मेघस्य सूर्यस्याग्रे विजयो न भवति तथैकोऽसहायोऽद्वितीयः सन्नन्यद्विश्वमानुषक् चकृषे कृतवानसि तस्माद्भवानुपास्योऽस्ति ॥ १४ ॥

Word-Meaning: - (न) निषेधार्थे (यस्य) जगदीश्वरस्य परमविदुषः सूर्यस्य (वा) (द्यावापृथिवी) प्रकाशाप्रकाशयुक्तौ लोकसमूहौ (अनु) अनुयोगे (व्यचः) व्याप्तेः (न) प्रतिषेधे (सिन्धवः) समुद्राः (रजसः) रागविषयस्यैश्वर्यस्य लोकस्य वा (अन्तम्) सीमानम् (आनशुः) प्राप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (न) निवारणे (उत) अपि (स्ववृष्टिम्) स्वकीयानां धनानामिव प्रेरितानां पदार्थानां शस्त्राणां जलानां वा वर्षणं प्रति (मदे) आनन्दे (अस्य) मेघस्य (युध्यतः) युद्धमाचरतः (एकः) असहायः (अन्यत्) द्वितीयं भिन्नम् (चकृषे) करोषि (विश्वम्) जगत् (आनुषक्) व्याप्त्यानुषक्तमुत्कृष्टगुणैरनुरक्तमाकर्षणेनानुयुक्तं वा ॥ १४ ॥
Connotation: - यथा परमेश्वरस्य कस्यापि गुणस्य कोऽपि मनुष्यो लोकश्च पारं ग्रहीतुं न शक्नोत, यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यो दुःखफलदानेन पीडयन् दुष्टान् ताडयन् सूर्यो मेघावयवान् विदारयँश्च युद्धकारीव वर्त्तते, तथैव सज्जनैर्भवितव्यम् ॥ १४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जसे परमेश्वराच्या कोणत्याही गुणाची कोणताही माणूस व गोल बरोबरी करू शकत नाहीत. जसे जगदीश्वर पापयुक्त कर्म करणाऱ्या माणसांना दुःखरूपी फळ देतो, दुष्टांची ताडना करतो व सूर्य मेघावयवाचे विदारण करतो आणि युद्ध करणाऱ्या माणसांप्रमाणे वागतो तसेच सर्व सज्जन माणसांनी वागले पाहिजे. ॥ १४ ॥