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यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥

English Transliteration

yasya saṁsthe na vṛṇvate harī samatsu śatravaḥ | tasmā indrāya gāyata ||

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Pad Path

यस्य॑। स॒म्ऽस्थे। न। वृ॒ण्वते॑। हरी॒ इति॑। स॒मत्ऽसु॑। शत्र॑वः। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:5» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:9» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:2» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

ईश्वर ने अपने आप और सूर्य्यलोक का गुणसहित चौथे मन्त्र से प्रकाश किया है-

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! तुम लोग (यस्य) जिस परमेश्वर वा सूर्य्य के (हरी) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले बल और पराक्रम तथा प्रकाश और आकर्षण (संस्थे) इस संसार में वर्त्तमान हैं, जिनके सहाय से (समत्सु) युद्धों में (शत्रवः) वैरी लोग (न वृण्वते) अच्छी प्रकार बल नहीं कर सकते, (तस्मै) उस (इन्द्राय) परमेश्वर वा सूर्य्यलोक को (गायत) उनके गुणों की प्रशंसा कह और सुन के यथावत् जानलो॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब तक मनुष्य लोग परमेश्वर को अपने इष्ट देव समझनेवाले और बलवान् अर्थात् पुरुषार्थी नहीं होते, तब तक उनको दुष्ट शत्रुओं की निर्बलता करने को सामर्थ्य भी नहीं होता॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनरीश्वरसूर्यौ गातव्यावित्युपदिश्यते।

Anvay:

हे मनुष्या ! यूयं यस्य हरी संस्थे वर्त्तेते, यस्य सहायेन शत्रवः समत्सु न वृण्वते, सम्यग् बलं न सेवन्ते, तस्मा इन्द्राय तमिन्द्रं नित्यं गायत॥४॥

Word-Meaning: - (यस्य) परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य वा (संस्थे) सम्यक् तिष्ठन्ति यस्मिंस्तस्मिन् जगति। घञर्थे कविधानम्। (अष्टा०३.३.५८) इति वार्तिकेनाधिकरणे कः प्रत्ययः। (न) निषेधार्थे (वृण्वते) सम्भजन्ते (हरी) हरणशीलौ बलपराक्रमौ प्रकाशाकर्षणाख्यौ च। हरी इन्द्रस्येत्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। (निघं०१.१५) (समत्सु) युद्धेषु। समत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) एतद्गुणविशिष्टम् (इन्द्राय) परमेश्वरं सूर्य्यं वा। अत्रोभयत्रापि सुपां सु० अनेनामः स्थाने ङे। (गायत) गुणस्तवनश्रवणाभ्यां विजानीत॥४॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। न यावन्मनुष्याः परमेश्वरेष्टा बलवन्तश्च भवन्ति, नैव तावद् दुष्टानां शत्रूणां नैर्बल्यङ्कर्तुं शक्तिर्जायत इति॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - यात श्लेषालंकार आहे. जोपर्यंत माणसे परमेश्वराला आपला इष्टदेव समजत नाहीत व बलवान अर्थात पुरुषार्थी बनत नाहीत तोपर्यंत त्यांच्यात दुष्ट शत्रूंना निर्बल करण्याचे सामर्थ्यही नसते. ॥ ४ ॥