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यो रा॒यो॒३॒॑वनि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥

English Transliteration

yo rāyo vanir mahān supāraḥ sunvataḥ sakhā | tasmā indrāya gāyata ||

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Pad Path

यः। रा॒यः। अ॒वनिः॑। म॒हान्। सु॒ऽपा॒रः। सु॒न्व॒तः। सखा॑। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:4» Mantra:10 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:8» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:2» Mantra:10


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर भी वह परमेश्वर कैसा है और क्यों स्तुति करने योग्य है, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - हे विद्वान् मनुष्यो ! जो बड़ों से बड़ा (सुपारः) अच्छी प्रकार सब कामनाओं की परिपूर्णता करनेहारा (सुन्वतः) प्राप्त हुए सोमविद्यावाले धर्मात्मा पुरुष को (सखा) मित्रता से सुख देने, तथा (रायः) विद्या सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और इस संसार में उक्त पदार्थों में जीवों को पहुँचाने और उनका देनेवाला करुणामय परमेश्वर है, (तस्मै) उसकी तुम लोग (गायत) नित्य पूजा किया करो॥१०॥
Connotation: - किसी मनुष्य को केवल परमेश्वर की स्तुतिमात्र ही करने से सन्तोष न करना चाहिये, किन्तु उसकी आज्ञा में रहकर और ऐसा समझ कर कि परमेश्वर मुझको सर्वत्र देखता, है, इसलिये अधर्म से निवृत्त होकर और परमेश्वर के सहाय की इच्छा करके मनुष्य को सदा उद्योग ही में वर्त्तमान रहना चाहिये॥१०॥इस सूक्त की कही हुई विद्या से, धर्मात्मा पुरुषों को परमेश्वर का ज्ञान सिद्ध करना तथा आत्मा और शरीर के स्थिर भाव, आरोग्य की प्राप्ति तथा दुष्टों के विजय और पुरुषार्थ से चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त होना, इत्यादि अर्थ की तृतीय सूक्त में कहे अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये।आर्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपखण्डवासी अध्यापक विलसन आदि साहबों ने इस सूक्त की भी व्याख्या ऐसी विरुद्ध की है कि यहाँ उसका लिखना व्यर्थ है॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृशः किमर्थं स्तोतव्य इत्युपदिश्यते।

Anvay:

हे विद्वांसो मनुष्याः ! यो महान्सुपारः सुन्वतः सखा रायोऽवनिः करुणामयोऽस्ति यूयं तस्मै तमिन्द्रायेन्द्रं परमेश्वरमेव गायत नित्यमर्चत॥१०॥

Word-Meaning: - (यः) परमेश्वरः करुणामयः (रायः) विद्यासुवर्णादिधनस्य। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अवनिः) रक्षकः प्रापको दाता (महान्) सर्वेभ्यो महत्तमः (सुपारः) सर्वकामानां सुष्ठु पूर्त्तिकरः (सुन्वतः) अभिगतसोमविद्यस्य धार्मिकस्य मनुष्यस्य (सखा) सौहार्द्देन सुखप्रदः (तस्मै) तमीश्वरम् (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवन्तम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुगिति द्वितीयैकवचनस्थाने चतुर्थ्येकवचनम्। (गायत) नित्यमर्चत। गायतीत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं०३.१४)॥१०॥
Connotation: - नैव केनापि केवलं परमेश्वरस्य स्तुतिमात्रकरणेन सन्तोष्टव्यं किन्तु तदाज्ञायां वर्त्तमानेन स नः सर्वत्र पश्यतीत्यधर्मान्निवर्त्तमानेन तत्सहायेच्छुना मनुष्येण सदैवोद्योगे प्रवर्त्तितव्यम्॥१०॥एतस्य विद्यया परमेश्वरज्ञानात्मशरीरारोग्यदृढत्वप्राप्त्या सदैव दुष्टानां विजयेन पुरुषार्थेन च चक्रवर्त्तिराज्यं धार्मिकैः प्राप्तव्यमिति संक्षेपतोऽस्य चतुर्थसूक्तोक्तार्थस्य तृतीयसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्यार्य्यावर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभि-रन्यथैव व्याख्या कृतेति वेदितव्यम्॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - कोणत्याही माणसाने केवळ परमेश्वराची स्तुती करून संतोष करता कामा नये, तर त्याच्या आज्ञेत राहून असे समजावे की परमेश्वर मला सर्वत्र पाहतो. त्यासाठी अधर्मापासून निवृत्त होऊन, परमेश्वराच्या साह्याची इच्छा बाळगून, माणसांनी सदैव उद्योगात राहावे. ॥ १० ॥
Footnote: आर्यावत्तवासी सायणाचार्य इत्यादी विद्वान व युरोप खंडवासी अध्यापक विल्सन इत्यादी साहेबांनी या सूक्ताची व्याख्या विपरीत केलेली आहे, ते लिहिणे व्यर्थ आहे.