Go To Mantra

प्र शं॑सा॒ गोष्वघ्न्यं॑ क्री॒ळं यच्छर्धो॒ मारु॑तम् । जम्भे॒ रस॑स्य वावृधे ॥

English Transliteration

pra śaṁsā goṣv aghnyaṁ krīḻaṁ yac chardho mārutam | jambhe rasasya vāvṛdhe ||

Mantra Audio
Pad Path

प्र । शं॒स॒ । गोषु॑ । अघ्न्य॑म् । क्री॒ळम् । यत् । शर्धः॑ । मारु॑तम् । जम्भे॑ । रस॑स्य । व॒वृ॒धे॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:37» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:3» Varga:12» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:8» Mantra:5


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर इनके योग से क्या-२ होता है, यह अगले मंत्र में उपदेश किया है।

Word-Meaning: - हे विद्वान्मनुष्यो ! तुम (यत्) जो (गोषु) पृथिवी आदि भूत वा वाणी आदि इन्द्रिय तथा गौ आदि पशुओं में (क्रीडम्) क्रीड़ा का निमित्त (अघ्न्यम्) नहीं हनन करने योग्य वा इन्द्रियों के लिये हितकारी (मारुतम्) पवनों का विकाररूप (रसस्य) भोजन किये हुए अन्नादि पदार्थों से उत्पन्न (जम्भे) जिससे गात्रों का संचलन हो मुख में प्राप्त हो के शरीर में स्थित (शर्द्धः) बल (ववृधे) वृधि को प्राप्त होता है उसको मेरे लिये नित्य (प्रशंसा) शिक्षा करो ॥५॥
Connotation: - मनुष्यों को योग्य है कि जो वायुसम्बन्धि शरीर आदि में क्रीड़ा और बल का बढ़ना है उसको नित्य उन्नति देवें और जितना रस आदि प्रतीत होता है वह सब वायु के संयोग से होता है इससे परस्पर इस प्रकार सब शिक्षा करनी चाहिये कि जिससे सब लोगों को वायु के गुणों की विद्या विदित हो होवें ॥५॥ मोक्षमूलर साहिब का कथन कि यह प्रसिद्ध वायु पवनों के दलों में उपाधि से बढ़ा हुआ जैसे उस पवन ने मेघावयवों को स्वादयुक्त किया है क्योंकि इसने पवनों का आदर किया इससे। सो यह अशुद्ध है कैसे कि जो इस मंत्र में इन्द्रियों के मध्य में पवनों का बल कहा है उसकी प्रशंसा करनी और जो प्राणि लोग मुख से स्वाद लेते हैं वह भी पवनों का बल है और इस शब्द के अर्थ में विलसन और मोक्षमूलर साहिब का वादविवाद निष्फल है ॥५॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

(प्र) प्रकृष्टार्थे (शंसा) अनुशाधि (गोषु) पृथिव्यादिष्विन्द्रियेषु पशुषु वा (अघ्न्यम्) हन्तुमयोग्यमघ्न्याभ्यो गोभ्यो हितं वा। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।१।१६#। अनेनाऽयं सिद्धः। अघ्न्येति गोनामसु पठितम्। निघं० २।११। (क्रीडम्) क्रीडति येन तत् (यत्) (शर्धः) बलम् (मारुतम्) मरुतो विकारो मारुतस्तम् (जम्भे) जभ्यन्ते गात्राणि विनाभ्यन्ते चेष्ट्यन्ते येन मुखेन तस्मिन् (रसस्य) भुक्तान्नत उत्पन्नस्य शरीरवर्द्धकस्य भोगेन (वावृधे) वर्धते। अत्र तुजादीनां दीर्घोभ्यासस्य* इति दीर्घः ॥५॥ #[वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ, ४।११२ इति संख्या वर्त्तते। सं०] *[अ० ६।१।७।]

Anvay:

पुनरेतेषां योगेन किं किं भवतीत्युपदिश्यते।

Word-Meaning: - हे विद्वंस्त्वं यद्गोषु क्रीडमघ्न्यं मारुतं जम्भे रसस्य सकाशादुत्पद्यमानं शर्धो बलं वावृधे तन्मह्यं प्रशंस नित्यमनुशाधि ॥५॥
Connotation: - मनुष्यैर्यद्वायुसम्बन्धि शरीरादिषु क्रीड़ाबलवर्धनमस्ति तन्नित्यं वर्धनीयम्। यावद्रसादिज्ञानं तत्सर्वं वायुसन्नियोगेनैव जायते अतः सर्वैः परस्परमेवमनुशासनं कार्य्यं यतः सर्वेषां वायुगुणविद्या विदिता स्यात् ॥५॥ मोक्षमूलरोक्तिः। स प्रसिद्धो वृषभो गवां मध्य अर्थात् पवनदलानां मध्य उपाधिवर्द्धितो जातः सन् यथा तेन मेघावयवाः स्वादिताः। कुतः। अनेन मरुतामादरः कृतस्तस्मादित्यशुद्धास्ति कथं। अत्र यद्गवां मध्ये मारुतं बलमस्ति। तस्य प्रशंसाः कार्य्याः। यच्चप्राणिभिर्मुखेनस्वाद्यते तदपि मारुतं बलमस्तीति। अत्र जम्भशब्दार्थे विलसन मोक्षमूलराख्यविवादो निष्फलोस्ति ॥५॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

N/A

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - माणसांनी हे जाणावे की शरीर इत्यादीमध्ये क्रीडा व बलाची वाढ, त्यात नित्य वृद्धी व रसनिर्मिती वगैरे सर्व वायूच्या संयोगाने होते. त्यामुळे अशा प्रकारचे शिक्षण दिले पाहिजे की, ज्यामुळे सर्व लोकांना वायूच्या गुणांची माहिती व्हावी. ॥ ५ ॥
Footnote: मोक्षमूलर साहेबांचे कथन आहे की, हा प्रसिद्ध वायू वायूच्या दलात उपाधीने वाढलेला आहे. जसे वायूने मेघावयांना स्वादयुक्त केलेले आहे, कारण त्या वायूचा आदर केला यामुळेच हे अशुद्ध आहे. जे या मंत्रात इंद्रियामध्ये वायूचे बळ सांगितलेले आहे त्याची प्रशंसा करावी व जो प्राणी मुखाने स्वाद घेतो तेही वायूचे बल आहे व या (जम्भ) शब्दाच्या बाबतीत अर्थात विल्सन व मोक्षमूलर साहेबाचा वादविवाद निष्फळ आहे.