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त्वम॑ग्ने वृष॒भः पु॑ष्टि॒वर्ध॑न॒ उद्य॑तस्रुचे भवसि श्र॒वाय्यः॑। य आहु॑तिं॒ परि॒ वेदा॒ वष॑ट्कृति॒मेका॑यु॒रग्रे॒ विश॑ आ॒विवा॑ससि ॥

English Transliteration

tvam agne vṛṣabhaḥ puṣṭivardhana udyatasruce bhavasi śravāyyaḥ | ya āhutim pari vedā vaṣaṭkṛtim ekāyur agre viśa āvivāsasi ||

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Pad Path

त्वम्। अ॒ग्ने॒। वृ॒ष॒भः। पु॑ष्टि॒ऽवर्ध॑नः। उद्य॑तऽस्रुचे। भ॒व॒सि॒। श्र॒वाय्यः॑। यः। आऽहु॑तिम्। परि॑। वेद॑। वष॑ट्ऽकृतिम्। एक॑ऽआयुः। अग्ने॑। विशः॑। आ॒ऽविवा॑ससि ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:31» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:32» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:7» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर अगले मन्त्र में उसी का प्रकाश किया है ॥

Word-Meaning: - हे (अग्ने) यज्ञक्रियाफलवित् जगद्गुरो परेश ! जो (त्वम्) आप (अग्रे) प्रथम (उद्यतस्रुचे) स्रुक् अर्थात् होम कराने के पात्र को अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले मनुष्य के लिये (श्रवाय्यः) सुनने-सुनाने योग्य (वृषभः) और सुख वर्षानेवाले (एकायुः) एक सत्य गुण, कर्म, स्वभाव रूप समान युक्त तथा (पुष्टिवर्द्धनः) पुष्टि वृद्धि करनेवाले (भवसि) होते हैं और (यः) जो आप (वषट्कृतिम्) जिसमें कि उत्तम-उत्तम क्रिया की जायें (आहुतिम्) तथा जिससे धर्मयुक्त आचरण किये जायें, उसका विज्ञान कराते हैं (विशः) प्रजा लोग पुष्टि वृद्धि के साथ उन आप और सुखों को (पर्याविवासति) अच्छे प्रकार से सेवन करते हैं ॥ ५ ॥
Connotation: - मनुष्यों को उचित है कि पहिले जगत् का कारण ब्रह्मज्ञान और यज्ञ की विद्या में जो क्रिया जिस-जिस प्रकार के होम करने योग्य पदार्थ हैं, उनको अच्छे प्रकार जानकर उनकी यथायोग्य क्रिया जानने से शुद्ध वायु और वर्षा जल की शुद्धि के निमित्त जो पदार्थ हैं, उनका होम अग्नि में करने से इस जगत् में बड़े-बड़े उत्तम-उत्तम सुख बढ़ते हैं और उनसे सब प्रजा आनन्दयुक्त होती है ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स उपदिश्यते ॥

Anvay:

हे अग्ने जगदीश्वर ! यस्त्वमग्रे उद्यतस्रुचे श्रवाय्यो वृषभ एकायुः पुष्टिवर्धनो भवसि यस्त्वं वषट्कृतिमाहुतिं परिवेद विज्ञापयसि, विशः सर्वाः प्रजा पुष्टिवृद्ध्या तं त्वां सुखानि च पर्याविवासति ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) (अग्ने) प्रज्ञेश्वर ! (वृषभः) यो वर्षति सुखानि सः (पुष्टिवर्धनः) पुष्टिं वर्धयतीति (उद्यतस्रुचे) उद्यता उत्कृष्टतया गृहीता स्रुग् येन तस्मै यज्ञानुष्ठात्रे (भवसि) (श्रवाय्यः) श्रोतुं श्रावयितुं योग्यः। (यः) (आहुतिम्) समन्ताद्धूयन्ते गृह्यन्ते शुभानि यया ताम् (परि) सर्वतः (वेद) जानासि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वषट्कृतिम्) वषट् क्रिया क्रियते यया रीत्या ताम् (एकायुः) एकं सत्यगुणस्वभावमायुर्यस्य सः (अग्रे) वेदविद्याभिज्ञापक (विशः) प्रजाः (आविवासति) समन्तात् परिचरति। विवासतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं०३.५) ॥ ५ ॥
Connotation: - मनुष्यैरादौ जगत्कारणं ब्रह्म ज्ञानं यज्ञविद्यायां च याः क्रिया यादृशानि होतुं योग्यानि द्रव्याणि सन्ति तानि सम्यग्विदित्वैतेषां प्रयोगविज्ञानेन शुद्धानां वायुवृष्टिजलशोधनहेतूनां द्रव्याणामग्नौ होमे कृते सेविते चास्मिन् जगति महान्ति सुखानि वर्धन्ते, तैः सर्वाः प्रजा आनन्दिता भवन्तीति ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - प्रथम जगाचे कारण, ब्रह्मज्ञान व यज्ञविद्येतील ज्या क्रिया व ज्या प्रकारचे होमात घालण्याचे पदार्थ असतात त्यांना माणसांनी योग्य प्रकारे जाणावे. प्रयोग विज्ञानाने शुद्ध वायू व वर्षाजल शुद्धीसाठी योग्य द्रव्य अग्नीत घालण्याने या जगात उत्तम सुख वाढते व त्यामुळे सर्व प्रजा आनंदित होते. ॥ ५ ॥