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म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥

English Transliteration

maho arṇaḥ sarasvatī pra cetayati ketunā | dhiyo viśvā vi rājati ||

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Pad Path

म॒हः। अर्णः॑। सर॑स्वती। प्र। चे॒त॒य॒ति॒। के॒तुना॑। धियः॑। विश्वाः॑। वि। रा॒ज॒ति॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:3» Mantra:12 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:6» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:1» Mantra:12


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाश करती है॥१२॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कार दिखलाया है। जैसे वायु से तरङ्गयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बड़ा भारी माना जाता है, वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाशित करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढ़ानेवाला होता है॥१२॥ दो सूक्तों की विद्या का प्रकाश करके इस तृतीय सूक्त से क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति के निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये। दूसरे सूक्त के अर्थ के साथ तीसरे सूक्त के अर्थ की सङ्गति है। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि नवीन पण्डितों ने अशुद्ध प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने सरस्वती शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उनने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती का वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इसी प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥

Anvay:

या सरस्वती केतुना महदर्णः खलु जलार्णवमिव शब्दसमुद्रं प्रकृष्टतया सम्यग् ज्ञापयति सा प्राणिनां विश्वा धियो विराजति विविधतयोत्तमा बुद्धीः प्रकाशयति॥१२॥

Word-Meaning: - (महः) महत्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन्नित्यसुन्प्रत्ययः। (अर्णः) जलार्णवमिव शब्दसमुद्रम्। उदके नुट् च। (उणा०४.१९७) अनेन सूत्रेणार्तेरसुन्प्रत्ययः। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सरस्वती) वाणी (प्र) प्रकृष्टार्थे (चेतयति) सम्यङ् ज्ञापयति (केतुना) शोभनकर्मणा प्रज्ञया वा। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (धियः) मनुष्याणां धारणावतीर्बुद्धीः (विश्वाः) सर्वाः (वि) विशेषार्थे (राजति) प्रकाशयति। अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। निरुक्तकार एनं मन्त्रमेवं समाचष्टे-महदर्णः सरस्वती प्रचेतयति प्रज्ञापयति केतुना कर्मणा प्रज्ञया वेमानि च सर्वाणि प्रज्ञानान्यभिविराजति वागर्थेषु विधीयते तस्मान्माध्यमिकां वाचं मन्यन्ते वाग्व्याख्याता। (निरु०११.२७)॥१२॥
Connotation: - अत्र वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुना चालितः सूर्य्येण प्रकाशितो जलरत्नोर्मिसहितो महान् समुद्रोऽनेकव्यवहाररत्नप्रदो वर्त्तते तथैवास्याकाशस्थस्य वेदस्थस्य च महतः शब्दसमुद्रस्य प्रकाशहेतुर्वेदवाणी विदुषामुपदेशश्चेतरेषां मनुष्याणां यथार्थतया मेधाविज्ञानप्रदो भवतीति॥१२॥सूक्तद्वयसम्बन्धिनोऽर्थस्योपदेशानन्तरमनेन तृतीयसूक्तेन क्रियाहेतुविषयस्याश्विशब्दार्थमुक्त्वा तत्सिद्धिकर्तॄणां विदुषां स्वरूपलक्षणमुक्त्वा विद्वद्भवनहेतुना सरस्वतीशब्देन सर्वविद्याप्राप्तिनिमित्तार्था वाक् प्रकाशितेति वेदितव्यम्। द्वितीयसूक्तोक्तानां वाय्विन्द्रादीनामर्थानां सम्बन्धे तृतीयसूक्तप्रतिपादितानामश्विविद्वत्सरस्वत्य-र्थानामन्वयाद् द्वितीयसूक्तोक्तार्थेन सहास्य तृतीयसूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्य सूक्तस्यार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथैव वर्णितः। तत्र प्रथमं तस्यायं भ्रमः—‘द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवद्देवता नदीरूपा च। तत्र पूर्वाभ्यामृग्भ्यां विग्रहवती प्रतिपादिता। अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते। ’ इत्यनेन कपोलकल्पनयाऽयमर्थो लिखित इति बोध्यम्। एवमेव व्यर्था कल्पनाऽध्यापक- विलसनाख्यादीनामप्यस्ति। ये विद्यामप्राप्य व्याख्यातारो भवन्ति तेषामन्धवत्प्रवृत्तिर्भवतीत्यत्र किमाश्चर्य्यम्॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकोपमेय लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूने तरंगित व सूर्याने प्रकाशित झालेला समुद्र आपली रत्ने व तरंग यांनी युक्त असून अनेक व्यवहारांत व रत्नप्राप्तीत फार मोठा मानला जातो. तसेच जी आकाश व अनेक विद्या व गुण असणारी वेदाच्या शब्दरूपी महासागराला प्रकाशित करणारी वेदवाणी व विद्वानांचा उपदेश आहे, तोच साधारण माणसांच्या यथार्थ बुद्धीला वर्धित करणारा असतो. ॥ १२ ॥
Footnote: या सूक्ताचा अर्थ सायणाचार्य इत्यादी नवीन पंडितांनी अयोग्य रीतीने लावलेला आहे. त्यांच्या व्याख्येच्या अगोदर सायणाचार्याचा भ्रम दर्शविला जात आहे. त्यांनी सरस्वती शब्दाचे दोन अर्थ सांगितलेले आहेत. एक अर्थ देहयुक्त देवता व दुसरा नदीरूपी सरस्वती मानलेली आहे. त्यांनी हेही सांगितलेले आहे की, या सूक्तात पहिल्या दोन मंत्रांत शरीर देवरूपी सरस्वतीचे प्रतिपादन केलेले आहे व त्यानंतरच्या या मंत्रात नदीरूपी सरस्वतीचे वर्णन केलेले आहे. जसा हा अर्थ त्यांनी कपोलकल्पित व विपरीत लिहिलेला आहे, त्याचप्रकारे अध्यापक विल्सनची कल्पना व्यर्थ मानली पाहिजे. कारण जी माणसे विद्येविना एखाद्या ग्रंथाची व्याख्या करण्यास प्रवृत्त होतात, त्यांची प्रवृत्ती अंधाप्रमाणे असते.