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यत्र॒ द्वावि॑व ज॒घना॑धिषव॒ण्या॑ कृ॒ता। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥

English Transliteration

yatra dvāv iva jaghanādhiṣavaṇyā kṛtā | ulūkhalasutānām aved v indra jalgulaḥ ||

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Pad Path

यत्र॑। द्वौऽइ॑व। ज॒घना॑। अ॒धि॒ऽस॒व॒न्या॑। कृ॒ता। उ॒लूख॑लऽसुतानाम्। अव॑। इत्। ऊँ॒ इति॑। इ॒न्द्र॒। ज॒ल्गु॒लः॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:28» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:25» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:6» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) भीतर बाहर के शरीर साधनों से ऐश्वर्यवाले विद्वान् मनुष्य ! तुम (द्वाविव) (जघना) दो जङ्घाओं के समान (यत्र) जिस व्यवहार में (अधिषवण्या) अच्छे प्रकार वा असार अलग-अलग करने के पात्र अर्थात् शिलबट्टे होते हैं, उनको (कृता) अच्छे प्रकार सिद्ध करके (उलूखलसुतानाम्) शिलबट्टे से शुद्ध किये हुए पदार्थों के सकाश से सार को (अव) प्राप्त हो (उ) और उत्तम विचार से (इत्) उसी को (जल्गुलः) बार-बार पदार्थों पर चला॥२॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे दोनों जांघों के सहाय से मार्ग का चलना-चलाना सिद्ध होता है, वैसे ही एक तो पत्थर की शिला नीचे रक्खें और दूसरा ऊपर से पीसने के लिये बट्टा जिसको हाथ में लेकर पदार्थ पीसे जायें, इनसे औषधि आदि पदार्थों को पीसकर यथावत् भक्ष्य आदि पदार्थों को सिद्ध करके खावें। यह भी दूसरा साधन उखली मुसल के समान बनाना चाहिये॥२॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥

Anvay:

हे इन्द्र ! विद्वंस्त्वं यत्र द्वे जङ्घे इव अधिषवण्ये फलके कृते भवतस्ते सम्यक् कृत्वोलूखलसुतानां पदार्थानां सकाशात् सारमव प्राप्नुहि उ वितर्के इत् तदेव जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय॥२॥

Word-Meaning: - (यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (द्वाविव) उभे यथा (जघना) उरुणी। जघनं जङ्घन्यतेः। (निरु०९.२०) अत्र हन्तेः शरीरावयवे द्वे च। (उणा०५.३२) अनेनाच् प्रत्ययो द्वित्वं सुपां सुलुग्० इति त्रिषु विभक्तेराकारादेशश्च। (अधिषवण्या) अधिगतं सुन्वन्ति याभ्यां ते अधिषवणी तयोर्भवे। अत्र भवे छन्दसि (अष्टा०४.४.११०) इति यत् (कृता) कृते (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन शोधितानाम् (अव) प्राप्नुहि (इत्) एव (उ) वितर्के (इन्द्र) अन्तःकरणबहिष्करणशरीरादिसाधनैश्वर्य्यवन् मनुष्य (जल्गुलः) अतिशयेन शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥२॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा द्वाभ्यामुरुभ्यां गमनादिका क्रिया निष्पाद्यते, तथैव पाषाणस्याध एका स्थूला शिला स्थापनार्था द्वितीया हस्तेनोपरि पेषणार्था कार्ये ताभ्यामोषधीनां पेषणं कृत्वा यथावद्भक्षणादि संसाध्य भक्षणीयमिदमपि मुसलोलूखलवद् द्वितीयं साधनं रचनीयमिति॥२॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांना जसे जांघांच्या साह्याने मार्ग चालणे - चालविणे शक्य असते, तसेच एका दगडाचा पाटा खाली ठेवावा. दुसरा वरून वाटण्यासाठी वरवंटा असावा. ज्यामुळे पदार्थ वाटले जावेत. त्यातून औषधी इत्यादी पदार्थ वाटून खावेत. हेही दुसरे साधन उखळ मुसळाप्रमाणे बनवावे. ॥ २ ॥