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श॒तं ते॑ राजन्भि॒षजः॑ स॒हस्र॑मु॒र्वी ग॑भी॒रा सु॑म॒तिष्टे॑ अस्तु। बाध॑स्व दू॒रे निर्ऋ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुग्ध्य॒स्मत्॥

English Transliteration

śataṁ te rājan bhiṣajaḥ sahasram urvī gabhīrā sumatiṣ ṭe astu | bādhasva dūre nirṛtim parācaiḥ kṛtaṁ cid enaḥ pra mumugdhy asmat ||

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Pad Path

श॒तम्। ते॒। रा॒ज॒न्। भि॒षजः॑। स॒हस्र॑म्। उ॒र्वी। ग॒भी॒रा। सु॒ऽम॒तिः। ते॒। अ॒स्तु॒। बाध॑स्व। दू॒रे। निःऽऋ॑तिम्। परा॒चैः। कृ॒तम्। चि॒त्। एनः॒। प्र। मु॒मु॒ग्धि॒। अ॒स्मत्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:24» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:14» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:6» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब जो राजा और प्रजा के मनुष्य हैं, वे किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - (राजन्) हे प्रकाशमान प्रजाध्यक्ष वा प्रजाजन ! जिस (भिषजः) सर्व रोग निवारण करनेवाले (ते) आपकी (शतम्) असंख्यात औषधि और (सहस्रम्) असंख्यात (गभीरा) गहरी (उर्वी) विस्तारयुक्त भूमि है, उस (निर्ऋतिम्) भूमि की (त्वम्) आप (सुमतिः) उत्तम बुद्धिमान् हो के रक्षा करो, जो दुष्ट स्वभावयुक्त प्राणी के (प्रमुमुग्धि) दुष्ट कर्मों को छुड़ादे और जो (पराचैः) धर्म से अलग होनेवालों ने (कृतम्) किया हुआ (एनः) पाप है, उसको (अस्मत्) हम लोगों से (दूरे) दूर रखिये और उन दुष्टों को उनके कर्म के अनुकूल फल देकर आप (बाधस्व) उनकी ताड़ना और हम लोगों के दोषों को भी निवारण किया कीजिये॥९॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि जो सभाध्यक्ष और प्रजा के उत्तम मनुष्य पाप वा सर्वरोग निवारण और पृथिवी के धारण करने, अत्यन्त बुद्धि बल देकर दुष्टों को दण्ड दिलवानेवाले होते हैं, वे ही सेवा के योग्य हैं और यह भी जानना कि किसी का किया हुआ पाप भोग के विना निवृत्त नहीं होता और इसके निवारण के लिये कुछ परमेश्वर की प्रार्थना वा अपना पुरुषार्थ करना भी योग्य ही है, किन्तु यह तो है जो कर्म जीव वर्त्तमान में करता वा करेगा, उसकी निवृत्ति के लिये तो परमेश्वर की प्रार्थना वा उपदेश भी होता है॥९॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ यौ राजप्रजापुरुषौ स्तस्तौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते।

Anvay:

हे राजन् प्रजाजन वा ! यस्य भिषजस्ते तव शतमौषधानि सहस्रसंख्याता गम्भीरोर्वी भूमिरस्ति, तां त्वं सुमतिर्भूत्वा निर्ऋतिं भूमिं रक्ष, दुष्टस्वभावं प्राणिनं दुष्कर्मणः प्रमुमुग्धि, यत्पराचैः कृतमेनोऽस्ति तदस्मद्दूरे रक्षैतान् पराचो दुष्टान् स्वस्वकर्मानुसारफलदानेन बाधस्वास्मान् शत्रुचोरदस्युभयाख्यात् पापात् प्रमुमुग्धि सम्यग् विमोचय॥९॥

Word-Meaning: - (शतम्) असंख्यातान्यौषधानि (ते) तव राज्ञः प्रजापुरुषस्य वा (राजन्) प्रकाशमान ! (भिषजः) सर्वरोगनिवारकस्य वैद्यस्य (सहस्रम्) असंख्याता (उर्वी) विस्तीर्णा भूमिः (गभीराः) अगाधा (सुमतिः) शोभना चासौ मतिर्विज्ञानं यस्य सः (ते) तव। अत्र युष्मत्तत्ततक्षु० (अष्टा०८.३.१०३) अनेन मूर्द्धन्यादेशः (अस्तु) भवतु (बाधस्व) दुष्टशत्रून् दोषान् वा निवारय (दूरे) विप्रकृष्टे (निर्ऋतिम्) भूमिम्। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (पराचैः) धर्मात् पराङ्मुखैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस्भावः कृतः (कृतम्) आचरितम् (चित्) एव (एनः) पापम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (मुमुग्धि) त्यज मोचय वा। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात्॥९॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यौ राजप्रजाजनौ पापसर्वरोगनिवारकौ पृथिव्याधारकावुत्कृष्टबुद्धि-प्रदातारौ धार्मिकेभ्यो बलप्रदानेन दुष्टानां बाधनहेतू भवतस्तावेव नित्यं सङ्गन्तव्यौ नैव कस्यचित् पापं भोगेन विना निवर्त्तते, किन्तु यद्भूतवर्त्तमानभविष्यत्काले च पापं कृतवान् करोति करिष्यति वा तन्निवारणार्थाः खलु प्रार्थनोपदेशपुरुषार्था भवन्तीति वेदितव्यम्॥९॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की सभाध्यक्ष व राज्यातील उत्तम प्रजाजन हे पाप व रोगांचे निवारण करणारे असून, पृथ्वीला धारण करणारे, बुद्धिबलाने धार्मिकांना बल देणारे व दुष्टांना दंड देणारे असतात. त्यांचीच नित्य संगत धरावी. कुणाचेही पाप भोगल्याशिवाय नाहीसे होत नाही. त्याच्या निवारणासाठी परमेश्वराची प्रार्थना व स्वतःचा पुरुषार्थही केला पाहिजे. जे पापकर्म जीव वर्तमानामध्ये करतो किंवा भविष्यात करील त्याच्या निवृत्तीसाठी परमेश्वराची प्रार्थना किंवा उपदेश असतो. ॥ ९ ॥