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इन्द्र॑ज्येष्ठा॒ मरु॑द्गणा॒ देवा॑सः॒ पूष॑रातयः। विश्वे॒ मम॑ श्रुता॒ हव॑म्॥

English Transliteration

indrajyeṣṭhā marudgaṇā devāsaḥ pūṣarātayaḥ | viśve mama śrutā havam ||

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Pad Path

इन्द्र॑ऽज्येष्ठाः। मरु॑त्ऽगणाः। देवा॑सः। पूष॑ऽरातयः। विश्वे॑। मम॑। श्रु॒त॒। हव॑म्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:23» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:9» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:5» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब वे पवनों के समूह किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - जो (पूषरातयः) सूर्य्य के सम्बन्ध से पदार्थों को देने (इन्द्रज्येष्ठाः) जिनके बीच में सूर्य्य बड़ा प्रशंसनीय हो रहा है और (देवासः) दिव्य गुणवाले (विश्वे) सब (मरुद्गणाः) पवनों के समूह (मम) मेरे (हवम्) कार्य्य करने योग्य शब्द व्यवहार को (श्रुत) सुनाते हैं, वे ही आप लोगों को भी॥८॥
Connotation: - कोई भी मनुष्य जिन पवनों के विना कहना, सुनना और पुष्ट होनादि व्यवहारों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता। जिन के मध्य में सूर्य्य लोक सब से बड़ा विद्यमान, जो इसके प्रदीपन करानेवाले हैं, जो यह सूर्य्य लोक अग्निरूप ही है, जिन और जिस बिजुली के विना कोई भी प्राणी अपनी वाणी के व्यवहार करने को भी समर्थ नहीं हो सकता, इत्यादि इन सब पदार्थों की विद्या को जान के मनुष्यों को सदा सुखी होना चाहिये॥८॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ कीदृशा मरुद्गणा इत्युपदिश्यते।

Anvay:

ये पूषरातय इन्द्रज्येष्ठा देवासो विश्वे मरुद्गणा मम हवं श्रुत श्रावयन्ति ते युष्माकमपि॥८॥

Word-Meaning: - (इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्रः सूर्य्यो ज्येष्ठः प्रशंस्यो येषां ते (मरुद्गणाः) मरुतां समूहाः (देवासः) दिव्यगुणविशिष्टाः (पूषरातयः) पूष्णः सूर्याद् रातिर्दानं येषां ते (विश्वे) सर्वे (मम) (श्रुत) श्रावयन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति शपो लुग् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (हवम्) कर्तव्यं शब्दव्यवहारम्॥८॥
Connotation: - नैव कश्चिदपि वायुगणेन विना कथनं श्रवणं पुष्टिं च प्राप्तुं शक्नोति। योऽयं सूर्य्यलोको महान् वर्त्तते यस्य य एव प्रदीपनहेतवः सन्ति, योऽग्निरूप एवास्ति नैतैर्विद्युता च विना कश्चिद्वाचमपि चालयितुं शक्नोतीति॥८॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - कोणताही माणूस वायूशिवाय कथन, श्रवण व संवर्धन इत्यादी व्यवहार करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. सूर्यलोक सर्वात मोठा असून प्रदीपनाचे कारण आहे. सूर्य हा अग्निरूप आहे. विद्युतशिवाय कोणताही प्राणी आपल्या वाणीचे व्यवहार करण्यासाठी समर्थ होऊ शकत नाही. या सर्व पदार्थांची विद्या जाणून माणसांनी सदैव सुखी झाले पाहिजे. ॥ ८ ॥