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तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑। दि॒वी॑व॒ चक्षु॒रात॑तम्॥

English Transliteration

tad viṣṇoḥ paramam padaṁ sadā paśyanti sūrayaḥ | divīva cakṣur ātatam ||

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Pad Path

तत्। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒विऽइ॑व। चक्षुः॑। आऽत॑तम्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:22» Mantra:20 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:7» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:5» Mantra:20


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

वह ब्रह्म कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - (सूरयः) धार्मिक बुद्धिमान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) व्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) चाहने जानने और प्राप्त होने योग्य उक्त वा वक्ष्यमाण पद हैं (तत्) उस को (सदा) सब काल में विमल शुद्ध ज्ञान के द्वारा अपने आत्मा में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्राणी सूर्य्य के प्रकाश में शुद्ध नेत्रों से मूर्त्तिमान् पदार्थों को देखते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निर्मल विज्ञान से विद्या वा श्रेष्ठ विचारयुक्त शुद्ध अपने आत्मा में जगदीश्वर को सब आनन्दों से युक्त और प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद को देखकर प्राप्त होते हैं। इस की प्राप्ति के विना कोई मनुष्य सब सुखों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं हो सकता। इस से इसकी प्राप्ति के निमित्त सब मनुष्यों को निरन्तर यत्न करना चाहिये। इस मन्त्र में परमम् पदम् इन पदों के अर्थ में यूरोपियन विलसन साहब ने कहा है कि इन का अर्थ स्वर्ग नहीं हो सकता, यह उनकी भ्रान्ति है, क्योंकि परमपद का अर्थ स्वर्ग ही है॥२०॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

तद् ब्रह्म कीदृशमित्युपदिश्यते।

Anvay:

सूरयो विद्वांसो दिव्याततं चक्षुरिव यद्विष्णोराततं परमं पदमस्ति तत् स्वात्मनि सदा पश्यन्ति॥२०॥

Word-Meaning: - (तत्) उक्तं वक्ष्यमाणं वा (विष्णोः) व्यापकस्यानन्दस्वरूपस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) अन्वेष्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा (सदा) सर्वस्मिन् काले (पश्यन्ति) सम्प्रेक्षन्ते (सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) अत्र सूङः क्रिः। (उणा०४.६४) अनेन ‘सूङ’ धातोः क्रिः प्रत्ययः। (दिवीव) यथा सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन। स्वात्मनि वा (चक्षुः) चष्टे येन तन्नेत्रम्। चक्षेः शिच्च। (उणा०२.११५) अनेन ‘चक्षे’ रुसिप्रत्ययः शिच्च। (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्॥२०॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्राणिनः सूर्यप्रकाशे शुद्धेन चक्षुषा मूर्त्तद्रव्याणि पश्यन्ति, तथैव विद्वांसो विमलेन ज्ञानेन विद्यासुविचारयुक्ते शुद्धे स्वात्मनि जगदीश्वरस्य सर्वानन्दयुक्तं प्राप्तुमर्हं मोक्षाख्यं पदं दृष्ट्वा प्राप्नुवन्ति। नैतत्प्राप्त्या विना कश्चित्सर्वाणि सुखानि प्राप्तुमर्हति तस्मादेतत्प्राप्तौ सर्वैः सर्वदा प्रयत्नोऽनुविधेय इति। विलसनाख्येन ‘परमं पदम्’ इत्यस्यार्थो हि स्वर्गो भवितुमशक्य इति भ्रान्त्योक्तत्वान्मिथ्यार्थोऽस्ति, कुतः’ परमस्य पदस्य स्वर्गवाचकत्वादिति॥२०॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे प्राणी सूर्यप्रकाशात शुद्ध नेत्रांनी मूर्तिमान पदार्थ पाहतात तसेच विद्वान लोक शुद्ध ज्ञानाने, विद्येने किंवा श्रेष्ठ विचाराने शुद्ध झालेल्या आत्म्यात जगदीश्वराला पाहतात व आनंद देणाऱ्या मोक्षाला प्राप्त करतात. त्याच्या प्राप्तीखेरीज कोणताही माणूस सर्व सुख प्राप्त करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. त्यामुळे त्याच्या प्राप्तीसाठी सर्व माणसांनी निरंतर प्रयत्न केले पाहिजेत. ॥ २० ॥
Footnote: या मंत्रात ‘परमम्’ पदम् या पदाचा अर्थ युरोपियन विल्सन साहेबांनी स्वर्ग होऊ शकत नाही, असे म्हटले आहे. हा त्यांचा भ्रम आहे. कारण परमपदाचा अर्थ स्वर्गच आहे. ॥ २० ॥