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अधा॑रयन्त॒ वह्न॒योऽभ॑जन्त सुकृ॒त्यया॑। भा॒गं दे॒वेषु॑ य॒ज्ञिय॑म्॥

English Transliteration

adhārayanta vahnayo bhajanta sukṛtyayā | bhāgaṁ deveṣu yajñiyam ||

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Pad Path

अधा॑रयन्त। वह्न॑यः। अभ॑जन्त। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। भा॒गम्। दे॒वेषु॑। य॒ज्ञिय॑म्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:20» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:2» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:5» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

वे उक्त कर्म को करके किसको प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - जो (वह्नयः) संसार में शुभकर्म वा उत्तम गुणों को प्राप्त करानेवाले बुद्धिमान् सज्जन पुरुष (सुकृत्यया) श्रेष्ठकर्म से (देवेषु) विद्वानों में रहकर (यज्ञियम्) यज्ञ से सिद्ध कर्म को (अधारयन्त) धारण करते हैं, वे (भागम्) आनन्द को निरन्तर (अभजन्त) सेवन करते हैं॥८॥
Connotation: - मनुष्यों को योग्य है कि अच्छे कर्म वा विद्वानों की सङ्गति तथा पूर्वोक्त यज्ञ के अनुष्ठान से व्यवहारसुख से लेकर मोक्षपर्य्यन्त सुख की प्राप्ति करनी चाहिये॥८॥ उन्नीसवें सूक्त में कहे हुए पदार्थों से उपकार लेने को बुद्धिमान् ही समर्थ होते हैं। इस अभिप्राय से इस बीसवें सूक्त के अर्थ का मेल पिछले उन्नीसवें सूक्त के साथ जानना चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने विपरीत वर्णन किया है॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

त एतत्कृत्वा किं प्राप्नुवन्तीत्युपदिश्यते।

Anvay:

ये वह्नयो वोढारो मेधाविनः सुकृत्यया देवेषु स्थित्वा यज्ञियमधारयन्त ते भागमभजन्त नित्यमानन्दं सेवन्ते॥८॥

Word-Meaning: - (अधारयन्त) धारयन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (वह्नयः) शुभकर्मगुणानां वोढारः। अत्र वहिश्रिश्रु० इति निः प्रत्ययः। (अभजन्त) सेवन्ते। अत्र लडर्थे लङ्। (सुकृत्यया) श्रेष्ठेन कर्मणा (भागम्) सेवनीयमानन्दम् (देवेषु) विद्वत्सु (यज्ञियम्) यज्ञनिष्पन्नम्॥८॥
Connotation: - मनुष्यैः सुकर्मणा विद्वत्सङ्गत्या पूर्वोक्तस्य यज्ञस्यानुष्ठानाद् व्यवहारसुखमारभ्य मोक्षपर्य्यन्तं सुखं प्राप्तव्यम्॥८॥एकोनविंशसूक्तोक्तानां सकाशादुपकारं ग्रहीतुं मेधाविन एव समर्था भवन्तीत्यस्य विंशस्य सूक्तस्यार्थस्य पूर्वेण सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथार्थमेव व्याख्यातमिति॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - माणसांनी चांगले कर्म व विद्वानांची संगती व पूर्वोक्त यज्ञाच्या अनुष्ठानाने व्यवहार सुखापासून मोक्षसुखापर्यंत प्राप्ती केली पाहिजे. ॥ ८ ॥
Footnote: या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी तसेच युरोपदेशवासी विल्सन इत्यादींनी विपरीत केलेला आहे.