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त्वष्टा॑ रू॒पाणि॒ हि प्र॒भुः प॒शून्विश्वा॑न्त्समान॒जे। तेषां॑ नः स्फा॒तिमा य॑ज ॥

English Transliteration

tvaṣṭā rūpāṇi hi prabhuḥ paśūn viśvān samānaje | teṣāṁ naḥ sphātim ā yaja ||

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Pad Path

त्वष्टा॑। रू॒पाणि॑। हि। प्र॒ऽभुः। प॒शून्। विश्वा॑न्। स॒म्ऽआ॒न॒जे। तेषा॑म्। नः॒ स्फा॒तिम्। आ। य॒ज॒ ॥ १.१८८.९

Rigveda » Mandal:1» Sukta:188» Mantra:9 | Ashtak:2» Adhyay:5» Varga:9» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:24» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे विद्वान् ! जैसे (त्वष्टा) सब जगत् का निर्माण करनेवाला (प्रभुः) समर्थ ईश्वर (हि) ही (विश्वान्) समस्त (पशुन्) गवादि पशुओं और (रूपाणि) समस्त विविध प्रकार से स्थूल वस्तुओं को (समानजे) अच्छे प्रकार प्रकट करता और (तेषाम्) उनकी (स्फातिम्) वृद्धि को प्रकट करता है वैसे आप (नः) हमारी वृद्धि को (आ, यज) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये ॥ ९ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जगदीश्वर ने इन्द्रियों से परे जो अतिसूक्ष्म कारण है उससे चित्र-विचित्र सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी, ओषधि और मनुष्य के शरीरावयवादि वस्तु बनाई हैं, वैसे इस सृष्टि के गुण, कर्म और स्वभाव क्रम से अनेक व्यवहार सिद्ध करनेवाली वस्तुयें बनानी चाहियें ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथेश्वरविषयमाह ।

Anvay:

हे विद्वन्यथा त्वष्टा प्रभुरीश्वरो हि विश्वान् पशून् रूपाणि च समानजे तेषां स्फातिं च समानजे तथा नः स्फातिमायज ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (त्वष्टा) सर्वस्य जगतो निर्माता (रूपाणि) सर्वाणि विविधस्वरूपाणि स्थूलानि वस्तूनि (हि) खलु (प्रभुः) समर्थः (पशून्) गवादीन् (विश्वान्) सर्वान् (समानजे) व्यक्तीकरोति (तेषाम्) (नः) अस्माकम् (स्फातिम्) वृद्धिम् (आ) समन्तात् (यज) गमय ॥ ९ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जगदीश्वरेणातीन्द्रियादतिसूक्ष्मकारणाद्विचित्राणि सूर्यचन्द्रपृथिव्योषधिमनुष्यशरीराऽवयवादीनि निर्मितानि तथाऽस्याः सृष्टेर्गुणकर्मस्वभावक्रमेणानेकानि व्यवहारसाधकानि वस्तूनि निर्मातव्यानि ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे जगदीश्वराने इंद्रियापलीकडे जे अतिसूक्ष्म कारण आहे त्यापासून चित्र-विचित्र सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, औषधी व माणसांचे शरीरावयव इत्यादी वस्तू बनविलेल्या आहेत. तसे या सृष्टीच्या गुणकर्म, स्वभावाच्या क्रमानुसार अनेक व्यवहार सिद्ध करणाऱ्या वस्तू निर्माण केल्या पाहिजेत. ॥ ९ ॥