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तं त्वा॑ व॒यं पि॑तो॒ वचो॑भि॒र्गावो॒ न ह॒व्या सु॑षूदिम। दे॒वेभ्य॑स्त्वा सध॒माद॑म॒स्मभ्यं॑ त्वा सध॒माद॑म् ॥

English Transliteration

taṁ tvā vayam pito vacobhir gāvo na havyā suṣūdima | devebhyas tvā sadhamādam asmabhyaṁ tvā sadhamādam ||

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Pad Path

त्वम्। त्वा॑। व॒यम्। पि॒तो॒ इति॑। वचः॑ऽभिः। गावः॑। न। ह॒व्या। सु॒सू॒दि॒म॒। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। स॒ध॒ऽमाद॑म्। अ॒स्मभ्य॑म्। त्वा॒। स॒ध॒ऽमाद॑म् ॥ १.१८७.११

Rigveda » Mandal:1» Sukta:187» Mantra:11 | Ashtak:2» Adhyay:5» Varga:7» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:24» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (पितो) अन्नव्यापी पालकेश्वर ! (तम्) उन पूर्वोक्त (त्वा) आपका आश्रय लेकर (वचोभिः) स्तुतिवाक्यों प्रशंसाओं से (गावः) दूध देती हुई गौवें (न) जैसे दूध, घी, दही आदि पदार्थों को देवें से उस अन्न से (वयम्) हम जैसे (हव्या) भोजन करने योग्य पदार्थों को (सुषूदिम) निकाशें तथा हम (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (सधमादम्) साथ आनन्द देनेवाले (त्वा) आपका हम तथा (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सधमादम्) साथ आनन्द देनेवाले (त्वा) आपका विद्वान् जन आश्रय करें ॥ ११ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे गौयें तृण, घास आदि खाकर रत्न दूध देती हैं, वैसे अन्नादि पदार्थों से श्रेष्ठतर भाग निकाशना चाहिये। जो अपने सङ्गियों का अन्नादि पदार्थों से सत्कार करते और परस्पर एक दूसरे के आनन्द की इच्छा से परमात्मा का आश्रय लेते हैं, वे प्रशंसित होते हैं ॥ ११ ॥इस सूक्त में अन्न के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ यह एकसौ सतासीवाँ सूक्त और सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे पितो तं त्वा त्वामाश्रित्य वचोभिर्गावो न ततो वयं यथा हव्या सुषूदिम। तथा वयं देवेभ्यः सधमादं त्वाऽस्मभ्यं सधमादञ्च त्वा विद्वांस आश्रयन्ताम् ॥ ११ ॥

Word-Meaning: - (तम्) (त्वा) त्वाम् (वयम्) (पितो) अन्नव्यापिन् पालकेश्वर (वचोभिः) स्तुतिवाक्यैः (गावः) धेनवः (न) इव (हव्या) अत्तुं योग्यानि (सुषूदिम) क्षारयेम (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (त्वा) त्वाम् (सधमादम्) सह मादयितारम् (अस्मभ्यम्) (त्वा) त्वाम् (सधमादम्) सह मादयितारम् ॥ ११ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा गावो तृणादिकं भुक्त्वा रत्नं दुग्धं ददति तथाऽन्नादिपदार्थेभ्यः श्रेष्ठतरो भागो निष्काशनीयः। ये स्वसङ्गिनोऽन्नादिना सत्कुर्वन्ति परस्परानन्दकाङ्क्षया परमात्मानञ्चाश्रयन्ति ते प्रशंसिता जायन्ते ॥ ११ ॥ ।अस्मिन् सूक्तेऽन्नगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इति सप्ताशीत्युत्तरं शततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा गाई तृण वगैरे खाऊन दूधरूपी रत्न देतात तसे अन्न इत्यादी पदार्थांपासून अत्यंत श्रेष्ठ भाग काढून घेतला पाहिजे. जे आपल्या संगतीतील लोकांचा अन्न इत्यादी पदार्थांनी सत्कार करतात व परस्पर एक दुसऱ्याच्या आनंदाची इच्छा बाळगून परमेश्वराचा आश्रय घेतात ते प्रशंसित होतात. ॥ ११ ॥