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दनो॒ विश॑ इन्द्र मृ॒ध्रवा॑चः स॒प्त यत्पुर॒: शर्म॒ शार॑दी॒र्दर्त्। ऋ॒णोर॒पो अ॑नव॒द्यार्णा॒ यूने॑ वृ॒त्रं पु॑रु॒कुत्सा॑य रन्धीः ॥

English Transliteration

dano viśa indra mṛdhravācaḥ sapta yat puraḥ śarma śāradīr dart | ṛṇor apo anavadyārṇā yūne vṛtram purukutsāya randhīḥ ||

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Pad Path

दनः॑। विशः॑। इ॒न्द्र॒। मृ॒ध्रऽवा॑चः। स॒प्त। यत्। पुरः॑। शर्म॑। शार॑दीः। दर्त्। ऋ॒णोः। अ॒पः। अ॒न॒व॒द्य॒। अर्णाः॑। यूने॑। वृ॒त्रम्। पु॒रु॒ऽकुत्सा॑य। र॒न्धीः॒ ॥ १.१७४.२

Rigveda » Mandal:1» Sukta:174» Mantra:2 | Ashtak:2» Adhyay:4» Varga:16» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:23» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को सूर्य के दृष्टान्त से कहते हैं ।

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) विद्युत् अग्नि के समान वर्त्तमान ! (यत्) जो आप (सप्त) सात (शारदीः) शरद् ऋतु सम्बन्धिनी (पुरः) शत्रुओं की नगरी और (शर्म) शत्रु घर को (दर्त्) विदारनेवाले होते हैं (मृध्रवाचः) अति बढ़ी हुई जिनकी वाणी उन (विशः) प्रजाओं को (दनः) शिक्षा देते राज्य के अनुकूल शासन देते हैं सो हे (अनवद्य) प्रशंसा को प्राप्त राजन् ! जैसे सूर्यमण्डल (पुरुकुत्साय) बहुत वज्ररूपी अपनी किरणें जिसमें वर्त्तमान उस (यूने) तरुण प्रबलतर वा सुख-दुख से मिलते न मिलते हुए संसार के लिये (वृत्रम्) मेघ को प्राप्त कराके (अर्णाः) नदी सम्बन्धी (अपः) जलों को वर्षाता वैसे आप (ऋणोः) प्राप्त होओ (रन्धीः) अच्छे प्रकार कार्य सिद्धि करनेवाले होओ ॥ २ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि शत्रुओं के पुर नगर, शरद् आदि ऋतुओं में सुख देनेवाले स्थान आदि वस्तु नष्ट कर शत्रुजन निवारणे चाहियें और सूर्य मेघजल से जैसे जगत् की रक्षा करता है, वैसे राजा को प्रजा की रक्षा करनी चाहिये ॥ २ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयं सूर्यदृष्टान्तेनाह ।

Anvay:

हे इन्द्र यद्यस्त्वं सप्तशारदीः पुरः शर्म च दर्त् मृध्रवाचो विशो दनः। स हे अनवद्य यथा सूर्यः पुरुकुत्साय यूने वृत्रं प्राप्यार्णा अपो वर्षयति तथा त्वमृणो रन्धीश्च ॥ २ ॥

Word-Meaning: - (दनः) अनदः। अत्राद्यन्तवर्णविपर्ययोऽडभावश्च। (विशः) प्रजाः (इन्द्र) विद्युदग्निरिव वर्त्तमान (मृध्रवाचः) मृध्राः प्रवृद्धा वाणीः (सप्त) सप्तछन्दोन्विता (यत्) (पुरः) शत्रुनगर्यः (शर्म) गृहम् (शारदीः) शरदृतुसम्बन्धिनीः (दर्त्) विदारितवान्भवति। अत्र विकरणाभावः। (ऋणोः) प्राप्नुयाः (अपः) जलानि (अनवद्य) प्रशंसित (अर्णाः) नदी सम्बन्धिनीः। अर्ण इति नदी ना०। निघं० १। १३। (यूने) (वृत्रम्) मेघम् (पुरुकुत्साय) पुरवो बहवः कुत्सा वज्राः किरणा यस्मिन् (रन्धीः) संराध्नुहि। अत्राडभावः ॥ २ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। राज्ञा शत्रुपुराणि वीरस्थानादि च विनाश्य ते निवारणीयाः सूर्यो जलेन यथा जगद्रक्षति तथा राज्ञा प्रजा रक्षणीयाः ॥ २ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजाने शत्रूचे पूर, नगर तसेच शरद ऋतूमध्ये सुख देणारी स्थाने इत्यादी गोष्टी नष्ट करून शत्रूंचे निवारण करावे व सूर्य मेघजलाने जसे जगाचे रक्षण करतो तसे राजाने प्रजेचे रक्षण केले पाहिजे. ॥ २ ॥