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य॒ज्ञो हि ष्मेन्द्रं॒ कश्चि॑दृ॒न्धञ्जु॑हुरा॒णश्चि॒न्मन॑सा परि॒यन्। ती॒र्थे नाच्छा॑ तातृषा॒णमोको॑ दी॒र्घो न सि॒ध्रमा कृ॑णो॒त्यध्वा॑ ॥

English Transliteration

yajño hi ṣmendraṁ kaś cid ṛndhañ juhurāṇaś cin manasā pariyan | tīrthe nācchā tātṛṣāṇam oko dīrgho na sidhram ā kṛṇoty adhvā ||

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Pad Path

य॒ज्ञः। हि। स्म॒। इन्द्र॑म्। कः। चि॒त्। ऋ॒न्धन्। जु॒हु॒रा॒णः। चि॒त्। मन॑सा। प॒रि॒ऽयन्। ती॒र्थे। न। अच्छ॑। त॒तृ॒षा॒णम्। ओकः॑। दी॒र्घः। न। सि॒ध्रम्। आ। कृ॒णो॒ति॒। अध्वा॑ ॥ १.१७३.११

Rigveda » Mandal:1» Sukta:173» Mantra:11 | Ashtak:2» Adhyay:4» Varga:15» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:23» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पूर्वोक्त विषय को विशद करते हुए अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - (कश्चित्) कोई (यज्ञः) राजधर्म (हि, ष्म) निश्चय से ही (इन्द्रम्) सभापति को (ऋन्धन्) उन्नति देता वा (मनसा) विचार के साथ (जुहुराणः) दुष्टजनों में कुटिल किया अर्थात् कुटिलता से वर्त्ता (चित्) सो (परियन्) सब ओर से प्राप्त होता हुआ (तीर्थे) जलाशय के (न) समान स्थान में (अच्छ) अच्छे (ततृषाणम्) निरन्तर पियासे को (दीर्घः) बड़ा (ओकः) स्थान जैसे मिले (न) वैसे (अध्वा) सन्मार्गरूप हुआ (सिध्रम्) शीघ्रता को (आ, कृणोति) अच्छे प्रकार करता है ॥ ११ ॥
Connotation: - पूर्व मन्त्र में अति शीघ्रता से रक्षा चाहते हुए विद्वान् बुद्धिमान् जन शिक्षा करना रूप आदि यज्ञों से अपनी पुरी नगरी के पालनेवाले राजा को समीप जाकर शिक्षा देते हैं, यह जो विषय कहा था, वहाँ यज्ञ से शीघ्रता का उपदेश करते हुए (यज्ञो हि०) इस मन्त्र का उपदेश करते हैं। इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं—जो सुख के बढ़ाने की इच्छा करें तो सब धर्म का आचरण करें और जो परोपकार करने की इच्छा करें तो सत्य का उपदेश करें ॥ ११ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पूर्वोक्तं विषयमाह ।

Anvay:

कश्चिद्यज्ञो हि ष्मेन्द्रमृन्धन्मनसा जुहुराणश्चित्परियँस्तीर्थे न स्थानेऽच्छ ततृषाणं दीर्घ ओको नाध्वरूपः सिध्रमा कृणोति ॥ ११ ॥

Word-Meaning: - (यज्ञः) राजधर्माख्यः (हि) (स्म) एव (इन्द्रम्) (कः) (चित्) अपि (ऋन्धन्) वर्द्धमानः सन् (जुहुराणः) दुष्टेषु कुटिलः (चित्) इव (मनसा) (परियन्) परितः सर्वतः प्राप्नुवन् (तीर्थे) जलाशये (न) इव (अच्छ) सम्यक्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ततृषाणम्) भृशं तृषितम् (ओकः) गृहम् (दीर्घः) बृहत् (न) इव (सिध्रम्) शीघ्रताम् (आ) (कृणोति) करोति (अध्वा) सन्मार्गरूपः ॥ ११ ॥
Connotation: - पूर्वमन्त्रे शीघ्रतररक्षाभिकाङ्क्षिणो विपश्चितः शासनादियज्ञैः पूर्पतिं राजानमुपशिक्षन्तीति यदुक्तम् तत्र यज्ञतः शीघ्रभावमुपदिशन्नाह। (यज्ञोहीति०) अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ—यदि सुखं वर्द्धयितुमिच्छेयुस्तर्हि सर्वे धर्ममाचरन्तु यदि परोपकारं कर्त्तुमिच्छेयुस्तर्हि सत्यमुपदिशन्तु ॥ ११ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - पूर्वीच्या मंत्रात अत्यंत शीघ्रतेने रक्षण करणारे विद्वान, बुद्धिमान लोक शिक्षण देणे इत्यादी आपल्या संपूर्ण नगरीचे पालन करणाऱ्या राजाला यज्ञाद्वारे शिक्षण देतात हा विषय सांगितलेला होता. तेथे यज्ञाने शीघ्रतेचा उपदेश करीत (यज्ञोहि. ) या मंत्राचा उपदेश करतात. या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सुख वाढावे अशी इच्छा बाळगतात त्यांनी धर्माचे आचरण करावे व जे परोपकार करण्याची इच्छा बाळगतात त्यांनी सत्याचा उपदेश करावा. ॥ ११ ॥