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इन्द्रा॑वरुण॒ नू नु वां॒ सिषा॑सन्तीषु धी॒ष्वा। अ॒स्मभ्यं॒ शर्म॑ यच्छतम्॥

English Transliteration

indrāvaruṇa nū nu vāṁ siṣāsantīṣu dhīṣv ā | asmabhyaṁ śarma yacchatam ||

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Pad Path

इन्द्रा॑वरुणा। नु। नु। वा॒म्। सिसा॑सन्तीषु। धी॒षु। आ। अ॒स्मभ्य॑म्। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:17» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:33» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:4» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उन से क्या-क्या सिद्ध होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - (नु) जिस कारण से (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुण (सिषासन्तीषु) उत्तम कर्म करने को चाहने और (धीषु) शुभ अशुभ वृत्तान्त धारण करनेवाली बुद्धियों में (नु) शीघ्र (अस्मभ्यम्) हम पुरुषार्थी विद्वानों के लिये (शर्म) दुःखविनाश करनेवाले उत्तम सुख का (आयच्छतम्) अच्छी प्रकार विस्तार करते हैं, इससे (वाम्) उन को कार्य्यों की सिद्धि के लिये मैं निरन्तर (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥८॥
Connotation: - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से हुवे इस पद का ग्रहण किया है। जो मनुष्य शास्त्र से उत्तमता को प्राप्त हुई बुद्धियों से शिल्प आदि उत्तम व्यवहारों में उक्त इन्द्र और वरुण को अच्छी रीति से युक्त करते हैं, वे ही इस संसार में सुखों को फैलाते हैं॥८॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ताभ्यां किं भवतीत्युपदिश्यते।

Anvay:

नु यतो यौ सिषासन्तीषु धीषु नु शीघ्रमस्मभ्यं शर्म आयच्छतमातनुतस्तस्माद्वां तौ मित्रावरुणौ कार्य्यसिद्धयर्थं नित्यमहं हुवे॥८॥

Word-Meaning: - (इन्द्रावरुणा) वायुजले सम्यक् प्रयुक्ते। पूर्ववदत्राकारादेशह्रस्वत्वे। (नु) क्षिप्रम्। न्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः (नु) हेत्वपदेशे। (निरु०१.४) अनेन हेत्वर्थे नुः। (वाम्) तौ। अत्र व्यत्ययः। (सिषासन्तीषु) सनितुं सम्भक्तुमिच्छन्तीषु। जनसनखनां० (अष्टा०६.४.४२) अनेनानुनासिकस्याकारादेशः। (धीषु) दधति जना याभिस्तासु प्रज्ञासु। धीरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (आ) समन्तात् क्रियायोगे (अस्मभ्यम्) पुरुषार्थिभ्यो विद्वद्भ्यः (शर्म) शृणाति हिनस्ति दुःखानि यत्तत् सर्वदुःखरहितं सुखम्, (यच्छतम्) विस्तारयतः। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥८॥
Connotation: - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद् ‘हुवे’ इति पदमनुवर्त्तते। ये मनुष्याः शास्त्रसंस्कारपुरुषार्थयुक्ताभिर्बुद्धिभिः सर्वेषु शिल्पाद्युत्तमेषु व्यवहारेषु मित्रावरुणौ सम्प्रयोज्यते त एवेह सुखानि विस्तारयन्तीति॥८॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘हुवे’ या पदाचे ग्रहण केलेले आहे. जी माणसे शास्त्रांनी संस्कारित, पुरुषार्थयुक्त बुद्धीने शिल्प इत्यादी व्यवहारात इन्द्र व वरुण यांना चांगल्या प्रकारे संप्रयोजित करतात तीच या संसारात सुखाचा विस्तार करतात. ॥ ८ ॥