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त्रय॑: के॒शिन॑ ऋतु॒था वि च॑क्षते संवत्स॒रे व॑पत॒ एक॑ एषाम्। विश्व॒मेको॑ अ॒भि च॑ष्टे॒ शची॑भि॒र्ध्राजि॒रेक॑स्य ददृशे॒ न रू॒पम् ॥

English Transliteration

trayaḥ keśina ṛtuthā vi cakṣate saṁvatsare vapata eka eṣām | viśvam eko abhi caṣṭe śacībhir dhrājir ekasya dadṛśe na rūpam ||

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Pad Path

त्रयः॑। के॒शिनः॑। ऋ॒तु॒ऽथा। वि। च॒क्ष॒ते॒। स॒व्ँम्व॒त्स॒रे। व॒प॒ते॒। एकः॑। ए॒षा॒म्। विश्व॑म्। एकः॑। अ॒भि। च॒ष्टे॒। शची॑भिः। ध्राजिः॑। एक॑स्य। द॒दृ॒शे॒। न। रू॒पम् ॥ १.१६४.४४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:164» Mantra:44 | Ashtak:2» Adhyay:3» Varga:22» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:22» Mantra:44


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे पढ़ने-पढ़ानेवाले लोगों के परीक्षको ! तुम जैसे (केशिनः) प्रकाशवान् वा अपने गुण को समय पाय जतानेवाले (त्रयः) तीन अर्थात् सूर्य, बिजुली और वायु (संवत्सरे) संवत्सर अर्थात् वर्ष में (ऋतुथा) वसन्तादि ऋतु के प्रकार से (शचीभिः) जो कर्म उनसे (वि, चक्षते) दिखाते अर्थात् समय-समय के व्यवहार को प्रकाशित कराते हैं (एषाम्) इन तीनों में (एकः) एक बिजुलीरूप अग्नि (वपते) बीजों को उत्पन्न कराता (एकः) सूर्य (विश्वम्) समग्र जगत् को (अभि, चष्टे) प्रकाशित करता और (एकस्य) वायु की (ध्राजिः) गति और (रूपम्) रूप (न) नहीं (ददृशे) दीखता वैसे तुम यहाँ प्रवर्त्तमान होओ ॥ ४४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम वायु, सूर्य और बिजुली के समान अध्ययन-अध्यापन आदि कार्मों से विद्याओं को बढ़ाओ। जैसे अपने आत्मा का रूप नेत्र से नहीं दीखता वैसे विद्वानों की गति नहीं जानी जाती। जैसे ऋतु संवत्सर को आरम्भ करते हुए समय को विभाग करते हैं, वैसे कर्म्मारम्भ विद्या-अविद्या और धर्म्म-अधर्म्म को पृथक्पृथक् करें ॥ ४४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्विद्वद्विषयमाह ।

Anvay:

हे अध्यापकाऽध्येतृपरीक्षका यूयं यथा केशिनस्त्रयः सूर्यविद्युद्वायवः संवत्सरे ऋतुथा शचीभिर्विचक्षत एषामेको वपत एको विश्वमभिचष्ट एकस्य ध्राजी रूपं च न ददृशे तथा यूयमिह प्रवर्त्तध्वम् ॥ ४४ ॥

Word-Meaning: - (त्रयः) वायुविद्युत्सूर्याः (केशिनः) प्रकाशवन्तो ज्ञापकाः (ऋतुथा) ऋतुप्रकारेण (वि) (चक्षते) दर्शयन्ति (संवत्सरे) (वपते) बीजानि संतनुते (एकः) (एषाम्) त्रयाणाम् (विश्वम्) समग्रं जगत् (एकः) सूर्यः (अभि) अभितः (चष्टे) प्रकाशयति (शचीभिः) कर्मभिः। शचीति कर्मना। निघं० २। १। (ध्राजिः) गतिः (एकस्य) वायोः (ददृशे) दृश्यते (न) (रूपम्)। इयं निरुक्ते व्याख्याता । निरु० १२। २७। ॥ ४४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं वायुसूर्यविद्युद्वदध्ययनाऽध्यापनादिभिर्विद्या वर्द्धयत यथात्मनो रूपं चक्षुषा न दृश्यते तथा विदुषां गतिर्न लक्ष्यते यथा ऋतवः संवत्सरमारभन्तं समयं विभजन्ति तथा कर्मारम्भं विद्याऽविद्ये धर्माऽधर्मो च विभजन्तु ॥ ४४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही गतिमान वायू, प्रकाशवान सूर्य अग्निरूपी विद्युतप्रमाणे अध्ययन - अध्यापन इत्यादी कर्म करून विद्या वाढवा. जसे आपल्या आत्म्याचे रूप नेत्रांनी दिसत नाही तशी विद्वानांची गती जाणता येत नाही. ऋतू संवत्सराचा आरंभ करीत काळाची विभागणी करतात तसे कर्मारंभ विद्या-अविद्या व धर्म-अधर्म पृथक करावा. ॥ ४४ ॥