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सु॒गव्यं॑ नो वा॒जी स्वश्व्यं॑ पुं॒सः पु॒त्राँ उ॒त वि॑श्वा॒पुषं॑ र॒यिम्। अ॒ना॒गा॒स्त्वं नो॒ अदि॑तिः कृणोतु क्ष॒त्रं नो॒ अश्वो॑ वनतां ह॒विष्मा॑न् ॥

English Transliteration

sugavyaṁ no vājī svaśvyam puṁsaḥ putrām̐ uta viśvāpuṣaṁ rayim | anāgāstvaṁ no aditiḥ kṛṇotu kṣatraṁ no aśvo vanatāṁ haviṣmān ||

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Pad Path

सु॒ऽगव्य॑म्। नः॒। वा॒जी। सु॒ऽअश्व्य॑म्। पुं॒सः। पु॒त्रान्। उ॒त। वि॒श्वा॒ऽपुष॑म्। र॒यिम्। अ॒ना॒गाः॒ऽत्वम्। नः॒। अदि॑तिः। कृ॒णो॒तु॒। क्ष॒त्रम्। नः॒। अश्वः॑। व॒न॒ता॒म्। ह॒विष्मा॑न् ॥ १.१६२.२२

Rigveda » Mandal:1» Sukta:162» Mantra:22 | Ashtak:2» Adhyay:3» Varga:10» Mantra:7 | Mandal:1» Anuvak:22» Mantra:22


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जैसे यह (वाजी) वेगवान् अग्नि (नः) हमारे (सुगव्यम्) सुन्दर गौओं में हुए पदार्थ जिसमें हैं उसको (स्वश्व्यम्) सुन्दर घोड़ों में उत्पन्न हुए को (पुंसः) पुरुषत्ववाले (पुत्रान्) पुत्रों (उत) और (विश्वापुषम्) सबकी पुष्टि देनेवाले (रयिम्) धन को (कृणोत्) करे सो (अदितिः) अखण्डित न नाश को प्राप्त हुआ (नः) हमको (अनागास्त्वम्) पापपने से रहित (क्षत्रम्) राज्य को प्राप्त करे सो (हविष्मान्) मिले हैं होम योग्य पदार्थ जिसमें वह (अश्वः) व्याप्तिशील अग्नि (नः) हम लोगों को (वनताम्) सेवे, वैसे हम लोग इसको सिद्ध करें ॥ २२ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पृथिवी आदि कि विद्या से गौ, घोड़े और पुरुष सन्तानों की पूरी पुष्टि और धन को संचित करके शीघ्रगामी अश्वरूप अग्नि की विद्या से राज्य को बढ़ाके निष्पाप होके सुखी होंवे औरों को भी ऐसे ही करें ॥ २२ ॥इस सूक्त में अश्वरूप अग्नि की विद्या का प्रतिपादन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ बासठवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

यथाऽयं वाजी नः सुगव्यं स्वश्व्यं पुंसः पुत्रानुतापि विश्वापुषं रयिं कृणोतु सोऽदितिर्नोऽनागास्त्वं क्षत्रं कृणोतु स हविष्मानश्वो नो वनतां तथा वयमेनं साध्नुयाम ॥ २२ ॥

Word-Meaning: - (सुगव्यम्) सुष्ठु गोषु भवानि यस्मिंस्तत् (नः) अस्माकम् (वाजी) वेगवान् (स्वश्व्यम्) शोभनेष्वश्वेषु भवम् (पुंसः) (पुत्रान्) (उत) (विश्वापुषम्) सर्वपुष्टिप्रदम् (रयिम्) श्रियम् (अनागास्त्वम्) निष्पापस्य भावम् (नः) अस्माकम् (अदितिः) अखण्डितः (कृणोतु) करोतु (क्षत्रम्) राज्यम् (नः) अस्मान् (अश्वः) व्याप्तिशीलोऽग्निः (वनताम्) सेवताम् (हविष्मान्) संबद्धानि हवींषि यस्मिन् सः ॥ २२ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पृथिव्यादिविद्यया गवामश्वानां पुसां पुत्राणां च पूर्णां पुष्टिं श्रियं च कृत्वाऽश्वाग्निद्यया राज्यं वर्द्धयित्वा निष्पापा भूत्वा सुखिनः स्युस्तेऽन्यानप्येवं कुर्युरिति ॥ २२ ॥अत्राश्वाग्निविद्याप्रतिपादनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् इति द्विषष्ट्युत्तरं शततमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. पृथ्वी इत्यादीची विद्या जाणून गाई, घोडे व संतान यांची पुष्टी करून, धन संचित करून, शीघ्रगामी अश्वरूपी अग्निविद्येने राज्याची वृद्धी करून निष्पाप बनावे व सुखी व्हावे आणि इतरांनाही सुखी करावे. ॥ २२ ॥