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च॒तुर्भि॑: सा॒कं न॑व॒तिं च॒ नाम॑भिश्च॒क्रं न वृ॒त्तं व्यतीँ॑रवीविपत्। बृ॒हच्छ॑रीरो वि॒मिमा॑न॒ ऋक्व॑भि॒र्युवाकु॑मार॒: प्रत्ये॑त्याह॒वम् ॥

English Transliteration

caturbhiḥ sākaṁ navatiṁ ca nāmabhiś cakraṁ na vṛttaṁ vyatīm̐r avīvipat | bṛhaccharīro vimimāna ṛkvabhir yuvākumāraḥ praty ety āhavam ||

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Pad Path

च॒तुःऽभिः॑। सा॒कम्। न॒व॒तिम्। च॒। नाम॑ऽभिः। च॒क्रम्। न। वृ॒त्तम्। व्यती॑न्। अ॒वी॒वि॒प॒त्। बृ॒हत्ऽश॑रीरः। वि॒ऽमिमा॑नः। ऋक्व॑ऽभिः। युवा॑। अकु॑मारः। प्रति॑। ए॒ति॒। आ॒ऽह॒वम् ॥ १.१५५.६

Rigveda » Mandal:1» Sukta:155» Mantra:6 | Ashtak:2» Adhyay:2» Varga:25» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:21» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जो (विमिमानः) विशेषता से धातुओं की वृद्धि का निर्माण करता हुआ (बृहच्छरीरः) बली स्थूल शरीरवाला (अकुमारः) पच्चीस वर्ष की अवस्था से निकल गया (युवा) किन्तु युवावस्था को प्राप्त ब्रह्मचारी (वृत्तम्) गोल (चक्रम्) चक्र के (न) समान (चतुर्भिः) चार (नामभिः) नामों के (साकम्) साथ (नवतिं, च) और नब्बे अर्थात् चौरानवे नामों से (व्यतीन्) विशेषता से जिनको बल प्राप्त हुआ उन बलवान् योद्धाओं को एक भी (अवीविपत्) अत्यन्त भ्रमाता है वह (ऋक्वभिः) प्रशंसित गुण, कर्म, स्वभावों से (आहवम्) प्रतिष्ठा के साथ बुलाने को (प्रति, एति) प्राप्त होता है ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अड़तालीस वर्ष भर अखण्डित ब्रह्मचर्य का सेवन करता है वह इकेला भी गोलचक्र के समान चौरानवे योद्धाओं को भ्रमा सकता है। मनुष्यों में दश वर्ष तक बाल्यावस्था पच्चीस वर्ष तक कुमारावस्था तदनन्तर छब्बीसवें वर्ष के आरम्भ से युवावस्था पुरुष की होती है और सत्रहवें वर्ष से कन्या की युवावस्था का आरम्भ है, इसके उपरान्त जो स्वयंवर विवाह को करते-कराते हैं वे महाभाग्यशाली होते हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में अध्यापकोपदेशक और ब्रह्मचर्य के फल के वर्णन से इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ पचपनवाँ सूक्त और पच्चीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

यो विमिमानो बृहच्छरीरोऽकुमारो युवा वृत्तं चक्रं न चतुर्भिर्नामभिः साकं नवतिं च व्यतीनेकोप्यवीविपत् स ऋक्वभिराहवं प्रत्येति ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (चतुर्भिः) चतुष्ट्वसंख्याकैः (साकम्) सार्द्धम् (नवतिम्) (च) (नामभिः) आख्याभिः (चक्रम्) (न) इव (वृत्तम्) (व्यतीन्) विशेषेण प्राप्तबलान् (अवीविपत्) अतिशयेन भ्रामयति (बृहच्छरीरः) बृहत् महच्छरीरं यस्य (विमिमानः) विशेषेण धातूनां निर्माता (ऋक्वभिः) प्रशंसितैर्गुणकर्मस्वभावैः (युवा) प्राप्तयौवनावस्थः (अकुमारः) पञ्चविंशतिवर्षातीतः (प्रति) (एति) प्राप्नोति (आहवम्) प्रतिष्ठाऽह्वानम् ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। योऽष्टाचत्वारिंशद्वर्षप्रमिताखण्डितं ब्रह्मचर्यं सेवते स एकोऽसहायोपि गोलचक्रवच्चतुर्ण्णवतिं योद्धॄन् भ्रामयितुं शक्नोति। मनुष्याणामादशमात्संवत्सराद्बाल्यावस्था, आपञ्चविंशतेः कुमारावस्था ततः षट्विंशवर्षारम्भाद्युवावस्थारम्भः पुरुषस्य सप्तदशाद्वर्षात्कन्यायाश्च युवावस्थारम्भोऽस्ति। अत ऊर्ध्वं ये स्वयंवरं विवाहं कुर्वन्ति कारयन्ति च ते महाभाग्यशालिनो जायन्ते ॥ ६ ॥अत्राध्यापकोपदेशकब्रह्मचर्यफलवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इति पञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो अठ्ठेचाळीस वर्षे अखंड ब्रह्मचर्याचे ग्रहण करतो तो एकटाच गोल चक्राप्रमाणे चौऱ्याण्णव योद्ध्यांना भ्रमित करू शकतो. माणसाची दहा वर्षांपर्यंत बाल्यावस्था, पंचवीस वर्षांपर्यंत कुमारावस्था त्यानंतर सव्विसाव्या वर्षाच्या आरंभापासून युवावस्था सुरू होते व सतराव्या वर्षापासून मुलीची युवावस्था आरंभ होते त्यानंतर जे स्वयंवर विवाह करतात, करवितात ते महाभाग्यशाली असतात. ॥ ६ ॥