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यु॒वं दक्षं॑ धृतव्रत॒ मित्रा॑वरुण दू॒ळभ॑म्। ऋ॒तुना॑ य॒ज्ञमा॑शाथे॥

English Transliteration

yuvaṁ dakṣaṁ dhṛtavrata mitrāvaruṇa dūḻabham | ṛtunā yajñam āśāthe ||

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Pad Path

यु॒वम्। दक्ष॑म्। धृ॒त॒ऽव्र॒ता॒। मित्रा॑वरुणा। दुः॒ऽदभ॑म्। ऋ॒तुना॑। य॒ज्ञम्। आ॒शा॒थे॒ इति॑॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:15» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:28» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:4» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब वायुविशेष प्राण वा उदान ऋतुओं के साथ क्या-क्या प्रकाश करते हैं, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - (युवम्) ये (धृतव्रतौ) बलों को धारण करनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और अपान (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (दूडभम्) जो कि शत्रुओं को दुःख के साथ धर्षण कराने योग्य (दक्षम्) बल तथा (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं॥६॥
Connotation: - जो सबका मित्र बाहर आनेवाला प्राण तथा शरीर के भीतर रहनेवाला उदान है, इन्हीं से प्राणी ऋतुओं के साथ सब संसाररूपी यज्ञ और बल को धारण करके व्याप्त होते हैं, जिससे सब व्यवहार सिद्ध होते हैं॥६॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

इदानीं वायुविशेषौ प्राणोदानावृतुना सह किं कुरुत इत्युपदिश्यते।

Anvay:

युवमिमौ धृतव्रतौ मित्रावरुणावृतुना दूडभं दक्षं यज्ञमाशाथे व्याप्तवन्तौ स्तः॥६॥

Word-Meaning: - (युवम्) ताविमौ। अत्र व्यत्ययः प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्। (अष्टा०७.२.८८) इति भाषायामाकारस्य विधानादत्राकारादेशो न। (दक्षम्) बलम् (धृतव्रता) धृतानि व्रतानि बलानि याभ्यां तौ (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च तौ प्राणोदानौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेराकारादेशो व्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (दूडभम्) शत्रुभिर्दुःखेन दम्भितुमर्हम्। दुरो दाशनाशदभध्येषूत्वं वक्तव्यमुत्तरपदादेश्च ष्टुत्वम्। (अष्टा०६.३.१०९) इति वार्तिकेन दुर इत्यस्य रेफस्योकारः सवर्णदीर्घादेशो धातोर्दकारस्य डकारश्च, खलन्तं रूपम्। सायणाचार्य्येण दूडभपदस्य ‘दह’ धातो रूपमिति साधितं तन्महाभाष्यकारव्याख्यानविरुद्धत्वादशुद्धमेव। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधं क्रियाजन्यम् (आशाथे) व्याप्तवन्तौ स्तः। अत्र व्यत्ययः॥६॥
Connotation: - सर्वमित्रो बाह्यगतिः प्राण आभ्यन्तरगतिर्बलसाधको वरुण उदानः, एताभ्यामेव प्राणिभिः सर्वजगदाख्यो यज्ञो बलं चतुर्योगेन धृत्वा व्याप्यते, येन सर्वे व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥६॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जो सर्वांचा मित्र असून बाहेर येणारा प्राण व शरीराच्या आत राहणारा उदान असतो, त्यांच्यामुळेच प्राणी ऋतूंबरोबर सर्व संसाररूपी यज्ञ व बल यांना धारण करून व्याप्त होतात, ज्यामुळे सर्व व्यवहार सिद्ध होतात. ॥ ६ ॥