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वे॒दि॒षदे॑ प्रि॒यधा॑माय सु॒द्युते॑ धा॒सिमि॑व॒ प्र भ॑रा॒ योनि॑म॒ग्नये॑। वस्त्रे॑णेव वासया॒ मन्म॑ना॒ शुचिं॑ ज्यो॒तीर॑थं शु॒क्रव॑र्णं तमो॒हन॑म् ॥

English Transliteration

vediṣade priyadhāmāya sudyute dhāsim iva pra bharā yonim agnaye | vastreṇeva vāsayā manmanā śuciṁ jyotīrathaṁ śukravarṇaṁ tamohanam ||

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Pad Path

वे॒दि॒ऽसदे॑। प्रि॒यऽधा॑माय। सु॒ऽद्युते॑। धा॒सिम्ऽइ॑व। प्र। भ॒र॒। योनि॑म्। अ॒ग्नये॑। वस्त्रे॑णऽइव। वा॒स॒य॒। मन्म॑ना। शुचि॑म्। ज्यो॒तिःऽर॑थम्। शु॒क्रऽव॑र्णम्। त॒मः॒ऽहन॑म् ॥ १.१४०.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:140» Mantra:1 | Ashtak:2» Adhyay:2» Varga:5» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:21» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब १४० एकसौ चालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के पुरुषार्थ और गुणों का विषय कहा है ।

Word-Meaning: - हे विद्वान् ! आप (मन्मना) जिससे मानते-जानते उस विचार से (वेदिषदे) जो वेदी में स्थिर होता उस (अग्नये) अग्नि के लिये (धासिमिव) जिससे प्राणों को धारण करते उस अन्न के समान हवन करने योग्य पदार्थ को जैसे वैसे (प्रियधामाय) जिसको स्थान पियारा उस (सुद्युते) सुन्दर कान्तिवाले विद्वान् के लिये (योनिम्) घर का (प्र, भर) अच्छे प्रकार धारण कर और उस (ज्योतीरथम्) ज्योति के समान (तमोहनम्) अन्धकार का विनाश करनेवाले (शुक्रवर्णम्) शुद्धस्वरूप (शुचिम्) पवित्र मनोहर यान को (वस्त्रेणेव) पट वस्त्र से जैसे (वासय) ढाँपो ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे होता जन आग में समिधरूप काष्ठों को अच्छे प्रकार स्थिर कर और उसमें घृत आदि हवि का हवन कर इस आग को बढ़ाते हैं, वैसे शुद्ध जन को भोजन और आच्छादन अर्थात् वस्त्र आदि से विद्वान् जन बढ़ावें ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विद्वत्पुरुषार्थगुणविषयः प्रोच्यते ।

Anvay:

हे विद्वँस्त्वं मन्मना वेदिषदेऽग्नये धासिमिव प्रियधामाय सुद्युते विदुषे योनिं प्रभर तं ज्योतीरथं तमोहनं शुक्रवर्णं रथं शुचिं वस्त्रेणेव वासय ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (वेदिषदे) यो वेद्यां सीदति तस्मै (प्रियधामाय) प्रियं धाम यस्य तस्मै (सुद्युते) शोभना द्युतिर्यस्य तत्सम्बुद्धौ (धासिमिव) दधति प्राणान् येन तमिव धासिरित्यन्नना०। निघं० २। ७। (प्र) (भर) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (योनिम्) गृहम् (अग्नये) पावकाय (वस्त्रेणेव) यथा पटेन (वासय) आच्छादय। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (मन्मना) मन्यते जानाति येन तेन (शुचिम्) पवित्रम् (ज्योतीरथम्) प्रकाशयुक्तं रमणीयं यानम् (शुक्रवर्णम्) शुद्धस्वरूपम् (तमोहनम्) यस्तमो हन्ति तम् ॥ १ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा होतारौ वह्नौ काष्ठानि संस्थाप्य घृतादिहविर्हुत्वेमं वर्धयन्ति तथा पवित्रं जनं भोजनाऽऽच्छादनैर्विद्वांसो वर्द्धयेयुः ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात विद्वानांचा पुरुषार्थ व सुखाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे होतागण अग्नीत समिधारूपी काष्ठांना चांगल्या प्रकारे स्थिर करून त्यात घृत इत्यादी हवीचे हवन करून अग्नी वृद्धिंगत करतात तसे पवित्र लोकांनी भोजन व आच्छादन अर्थात् वस्त्र इत्यादींनी विद्वान लोकांना वाढवावे. ॥ १ ॥