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अस्तु॒ श्रौष॑ट् पु॒रो अ॒ग्निं धि॒या द॑ध॒ आ नु तच्छर्धो॑ दि॒व्यं वृ॑णीमह इन्द्रवा॒यू वृ॑णीमहे। यद्ध॑ क्रा॒णा वि॒वस्व॑ति॒ नाभा॑ सं॒दायि॒ नव्य॑सी। अध॒ प्र सू न॒ उप॑ यन्तु धी॒तयो॑ दे॒वाँ अच्छा॒ न धी॒तय॑: ॥

English Transliteration

astu śrauṣaṭ puro agniṁ dhiyā dadha ā nu tac chardho divyaṁ vṛṇīmaha indravāyū vṛṇīmahe | yad dha krāṇā vivasvati nābhā saṁdāyi navyasī | adha pra sū na upa yantu dhītayo devām̐ acchā na dhītayaḥ ||

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Pad Path

अस्तु॑। श्रौष॑ट्। पु॒रः। अ॒ग्निम्। धि॒या। द॒धे॒। आ। नु। तत्। शर्धः॑। दि॒व्यम्। वृ॒णी॒म॒हे॒। इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। वृ॒णी॒म॒हे॒। यत्। ह॒। क्रा॒णा। वि॒वस्व॑ति। नाभा॑। स॒म्ऽदायि॑। नव्य॑सी। अध॑। प्र। सु। नः॒। उप॑। य॒न्तु॒। धी॒तयः॑। दे॒वान्। अच्छ॑। न। धी॒तयः॑ ॥ १.१३९.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:139» Mantra:1 | Ashtak:2» Adhyay:2» Varga:3» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:20» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब एकसौ उनतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में पुरुषार्थ की प्रशंसा का वर्णन करते हैं ।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (धीतयः) अङ्गुलियों के (न) समान (धीतयः) धारणा करनेवाले आप (धिया) कर्म से (नः) हम (देवान्) विद्वान् जनों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (उप, यन्तु) समीप में प्राप्त होओ, जिन्होंने (विवस्वति) सूर्यमण्डल में (नाभा) मध्यभाग की आकर्षण विद्या अर्थात् सूर्यमण्डल के प्रकाश में बहुत से प्रकाश को यन्त्रकलाओं से खींच के एकत्र उसकी उष्णता करने में (नव्यसी) अतीव नवीन उत्तम बुद्धि वा कर्म (संदायि) सम्यक् दिया उन (क्राणा) कर्म करने के हेतु (इन्द्रवायु) बिजुली और प्राण (ह) ही को हम लोग (सु, वृणीमहे) सुन्दर प्रकार से धारण करें। मैं जिस (श्रौषट्) हविष् पदार्थ को देनेवाली विद्या बुद्धि (पुरः) पूर्ण (अग्निम्) विद्युत और (दिव्यम्) शुद्ध प्राणि में हुए (शर्धः) बल को (आ, दधे) अच्छे प्रकार धारण करूँ (यत्) जिन प्राण विद्युत् जन्य सुख को हम लोग (प्र, वृणीमहे) अच्छे प्रकार स्वीकार करें, (अध) इसके अनन्तर (तत्) वह सुख सबको (नु अस्तु) शीघ्र प्राप्त हो ॥ —१ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अङ्गुली सब कर्मों में उपयुक्त होती हैं, वैसे तुम लोग भी पुरुषार्थ में युक्त होओ, जिससे तुम में बल बढ़े ॥ —१ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ पुरुषार्थप्रशंसामाह ।

Anvay:

हे मनुष्या धीतयो नेव धीतयो भवन्तो धिया नो देवानच्छोप यन्तु याभ्यां विवस्वति नाभा नव्यसी संदायि तौ क्राणा इन्द्रवायू ह वयं सुवृणीमहे यदहं श्रौषट् पुरोऽग्निं दिव्यं शर्ध आदधे यद्वयं प्रवृणीमहेऽध तत्सर्वेषां न्वस्तु ॥ —१ ॥

Word-Meaning: - (अस्तु) (श्रौषट्) हविर्दात्रीम् (पुरः) पूर्णम् (अग्निम्) विद्युतम् (धिया) कर्मणा (दधे) दधीय (आ) (नु) (तत्) (शर्द्धः) बलम् (दिव्यम्) दिवि शुद्धे भवम् (वृणीमहे) संभरेमहि (इन्द्रवायू) विद्युत्प्राणौ (वृणीमहे) (यत्) यौ (ह) किल (क्राणा) कुर्वाणौ (विवस्वति) सूर्ये (नाभा) मध्यभागाऽऽकर्षणे (संदायि) सम्प्रदीयते (नव्यसी) अतीव नूतना प्रज्ञा कर्म वा (अध) आनन्तर्ये (प्र) (सु) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नः) अस्मान् (उप) (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (धीतयः) (देवान्) विदुषः (अच्छ) अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (न) (धीतयः) अङ्गुलयः ॥ —१ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथाऽङ्गुलयः सर्वेषु कर्मसूपयुक्ता भवन्ति तथा पुरुषार्थे भवत। यतो युष्मासु बलं वर्धेत ॥ —१ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात विद्वानांच्या शीलाचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी हाताची बोटे सर्व कर्म करताना उपयुक्त ठरतात तसे तुम्हीही पुरुषार्थी व्हा. ज्यामुळे तुमचे बल वाढेल. ॥ १ ॥