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सं यज्जना॒न्क्रतु॑भि॒: शूर॑ ई॒क्षय॒द्धने॑ हि॒ते त॑रुषन्त श्रव॒स्यव॒: प्र य॑क्षन्त श्रव॒स्यव॑:। तस्मा॒ आयु॑: प्र॒जाव॒दिद्बाधे॑ अर्च॒न्त्योज॑सा। इन्द्र॑ ओ॒क्यं॑ दिधिषन्त धी॒तयो॑ दे॒वाँ अच्छा॒ न धी॒तय॑: ॥

English Transliteration

saṁ yaj janān kratubhiḥ śūra īkṣayad dhane hite taruṣanta śravasyavaḥ pra yakṣanta śravasyavaḥ | tasmā āyuḥ prajāvad id bādhe arcanty ojasā | indra okyaṁ didhiṣanta dhītayo devām̐ acchā na dhītayaḥ ||

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Pad Path

सम्। यत्। जना॑न्। क्रतु॑ऽभिः। शूरः॑। ई॒क्षय॑त्। धने॑। हि॒ते। त॒रु॒ष॒न्त॒। श्र॒व॒स्यवः॑। प्र। य॒क्ष॒न्त॒। श्र॒व॒स्यवः॑। तस्मै॑। आयुः॑। प्र॒जाऽव॑त्। इत्। बाधे॑। अ॒र्च॒न्ति॒। ओज॑सा। इन्द्र॑। ओ॒क्य॑म्। दि॒धि॒ष॒न्त॒। धी॒तयः॑। दे॒वान्। अच्छ॑। न। धी॒तयः॑ ॥ १.१३२.५

Rigveda » Mandal:1» Sukta:132» Mantra:5 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:21» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्य क्या करके क्या कर सकते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे विद्वानो ! (श्रवस्यवः) अपने को सुनने में चाहना करनेवालों के समान वर्त्तमान (श्रवस्यवः) अपने सुनने की इच्छा करनेवाले तुम जैसे (क्रतुभिः) बुद्धि वा कर्मों से (यत्) जिन (जनान्) धार्मिक जनों को (हिते) सुख करनेहारे (धने) धन के निमित्त (तरुषन्त) पार करो उद्धार करो और (प्रयक्षन्त) दुष्टों को दण्ड देओ और जो (शूरः) निर्भय शूरवीर पुरुष (समीक्षयत्) ज्ञान करावे व्यवहार को दर्शावे (तस्मै) उसके लिये (प्रजावत्) जिसमें बहुत सन्तान विद्यमान वह (आयुः) आयुर्दा हो। हे उत्तम विचारशील पुरुषो ! तुम (धीतयः) धारण करते हुओं के (न) समान (धीतयः) धारणा करनेवाले होते हुए परमऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर में (ओक्यम्) घरों में श्रेष्ठ व्यवहार उसको सिद्ध कर (देवान्) विद्वानों को (अच्छ) अच्छा (दिधिषन्त) उपदेश करते समझाते हो वे आप (बाधे) दुष्ट व्यवहारों को बाधा के लिये (ओजसा) पराक्रम से (अर्चन्ति) सत्कार करते हुओं के समान कष्ट में (इत्) ही रक्षा करो ॥ ५ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्वानों के सङ्ग और सेवा में विद्याओं को पाकर पुरुषार्थ से परम ऐश्वर्य्य की उन्नति करते हैं, वे सब ज्ञानवान् पुरुषों को सुखयुक्त कर सकते हैं ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्याः किं कर्त्तुं शक्नुवन्तीत्याह।

Anvay:

हे विद्वांसः श्रवस्यव इव वर्त्तमानाः श्रवस्यवो यूयं क्रतुभिर्यज्जनान् हिते धने तरुषन्त प्रयक्षन्त च। यः शूरः समीक्षयत् तस्मै प्रजावदायुर्भवतु। हे विपश्चितो ये यूयं धीतयो न धीतयः सन्त इन्द्रे परमैश्वर्य्ययुक्त ओक्यं संपाद्य देवानाच्छादिधिषन्त बाध ओजसाऽर्चन्तीव बाध इद्रक्षत ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (सम्) सम्यक् (यत्) यान् (जनान्) धार्मिकान् (क्रतुभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (शूरः) निर्भयः (ईक्षयत्) दर्शयेत् (धने) (हिते) सुखकारके (तरुषन्त) ये दुःखानि तरन्ति तद्वदाचरत (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवः श्रवणमिच्छवः (प्र) (यक्षन्त) रोषत हिंस्त (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवणमिच्छव इव वर्त्तमानाः (तस्मै) (आयुः) जीवनम् (प्रजावत्) बह्व्यः प्रजा विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (इत्) एव (बाधे) (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति (ओजसा) पराक्रमेण (इन्द्रे) परमेश्वर्ययुक्ते (ओक्यम्) ओकेषु गृहेषु साधु (दिधिषन्त) उपदिशन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (धीतयः) धरन्तः (देवान्) विदुषः (अच्छ) उत्तमरीत्या (न) इव (धीतयः) धरन्तः ॥ ५ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये विद्वत्सङ्गसेवाभ्यां विद्याः प्राप्य पुरुषार्थेन परमैश्वर्यमुन्नयन्ति ते सर्वान् प्राज्ञान्सुखिनः संपादयितुं शक्नुवन्ति ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे विद्वानांच्या संगतीत व सेवेत राहून विद्या प्राप्त करतात व पुरुषार्थाने परम ऐश्वर्य वाढवितात ते सर्व ज्ञानी लोकांना सुखी करतात. ॥ ५ ॥