विश्वो॒ विहा॑या अर॒तिर्वसु॑र्दधे॒ हस्ते॒ दक्षि॑णे त॒रणि॒र्न शि॑श्रथच्छ्रव॒स्यया॒ न शि॑श्रथत्। विश्व॑स्मा॒ इदि॑षुध्य॒ते दे॑व॒त्रा ह॒व्यमोहि॑षे। विश्व॑स्मा॒ इत्सु॒कृते॒ वार॑मृण्वत्य॒ग्निर्द्वारा॒ व्यृ॑ण्वति ॥
viśvo vihāyā aratir vasur dadhe haste dakṣiṇe taraṇir na śiśrathac chravasyayā na śiśrathat | viśvasmā id iṣudhyate devatrā havyam ohiṣe | viśvasmā it sukṛte vāram ṛṇvaty agnir dvārā vy ṛṇvati ||
विश्वः॑। विऽहा॑याः। अ॒र॒तिः। वसुः॑। द॒धे॒। हस्ते॑। दक्षि॑णे। त॒रणिः॑। न। शि॒श्र॒थ॒त्। श्र॒व॒स्यया॑। न। शि॒श्र॒थ॒त्। विश्व॑स्मै॒। इत्। इ॒षु॒ध्य॒ते। दे॒व॒ऽत्रा। ह॒व्यम्। आ। ऊ॒हि॒षे॒। विश्व॑स्मै। इत्। सु॒ऽकृते॑। वार॑म्। ऋ॒ण्व॒ति॒। अ॒ग्निः। द्वारा॑। वि। ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥ १.१२८.६
SWAMI DAYANAND SARSWATI
फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह।
विश्वो विहाया अरतिस्तरणिर्वसुः श्रवस्ययाऽग्निर्न शिश्रथदिव न शिश्रथद्दक्षिणे हस्ते आमलकइव देवत्राहं विद्या दधे विश्वस्मा इषुध्यते त्वं हव्यमोहिषे तथेद्यो विश्वस्मै सुकृते द्वारा ऋण्वति स सुखमिद्वारं व्यृण्वति ॥ ६ ॥
MATA SAVITA JOSHI
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